रविवार, 1 अप्रैल 2012

वाम राजनीति को झकझोर गयी सीपीआई की कांग्रेस

कमलेश
सीपीआई का इक्कीसवां महाधिवेशन ख़त्म हुआ. लगभग पांच दिनों तक चले इस कांग्रेस ने बिहार में उम्मीद की एक नई किरण जगाई है. कांग्रेस की शुरुआत एक रैली से हुई और इस रैली से  सूबे में वैसे लोगों को काफी सुकून मिला है जो बिहार में राजनीतिक बदलाव देखना चाहते हैं और जिन्हें राजद, कांग्रेस, जेडी य़ू या फिर बीजेपी जैसे दलों से कोई उम्मीद नहीं है. लम्बे समय के बाद पटना की सड़कों पर किसी वामपंथी दल ने अपनी ताकत दिखाई थी. पिछले दिनों माले की भी रैली हुई थी लेकिन उसके लोग सड़क पर उस दिन इस तरह नहीं उतरे थे. एक बड़ी रैली लेकिन अनुशासित और दूसरों की परेशानियों का ख्याल रखने वाली. हालाँकि रैली के बाद हुई सभा में इतनी भीड़ नहीं रही जितनी रैली में दिखाई पड़ी थी. शायद उस दिन चल रही लू और धूप का असर था. लेकिन उस दिन सीपीआई के महासचिव ए. बी. वर्धन के तेवर बता रहे थे कि सीपीआई अब बिहार में आर या पार की लड़ाई के मूड में है. उन्होंने न केवल वामपंथी एकता की बात की बल्कि क्षेत्रीय दलों से भी कहा कि वे फैसला करें कि उन्हें किसके साथ रहना है. कार्पोरेट और घोटालेबाजों की संरक्षक बीजेपी और कांग्रेस के साथ या फिर वाम जनवादी ताकतों के साथ.
महाधिवेशन के पहले दिन माकपा के महासचिव प्रकाश करात, माले के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य, आर एस पी के अवनी राय और एस य़ू सी आई के देवव्रत विश्वास सभी ने वामपंथी एकता की वकालत की. इससे लोगों में एक नया सन्देश गया है. एक बात साफ हो गयी है कि अगर वामपंथी ताकत बिहार में मिल कर नहीं लड़ेंगी  तो उन्हें ख़त्म हो जाना होगा. वैसे भी आम लोग आज भी इस बात को नहीं समझ पाते हैं कि भाकपा, माकपा और माले में अंतर क्या है और ये लोग अलग-अलग चुनाव क्यों लड़ते हैं. महाधिवेशन में भी जब ये नेता वाम एकता की वकालत कर रहे थे तो निचले स्तर के कार्यकर्त्ता अपनी तालियों से अपनी इच्छा बता रहे थे.
हिंदी पट्टी के बिहार जैसे राज्य में  सीपीआई का महाधिवेशन होने का मतलब ही है कि सीपीआई इन राज्यों में अपने घटते जनाधार से परेशान है. कभी बिहार विधान सभा में मुख्या विपक्षी दल रहने वाली सीपीआई के पास आज मात्र एक विधायक है. पार्टी के राष्ट्रीय सचिव अतुल कुमार अनजान ने एक बातचीत के दौरान स्वीकार किया कि हिंदी पट्टी में चली जातिवादी और सांप्रदायिक हवा के कारण उनकी पार्टी की जमीन कमजोर हुई है और बिहार में भी ऐसा ही हुआ है. लेकिन उन्होंने साथ यह भी कहा कि इस महाधिवेशन में हमलोग किट्टी पार्टी या हाउजी खेलने नहीं आये हैं. इस महाधिवेशनके माध्यम से  हमलोग बिहार में अपनी जमीन मजबूत करेंगे और वाम जनवादी आन्दोलन की शुरुआत करेंगे.

महाधिवेशन के अंतिम दिन जब ए.के. वर्धन अपना विदाई भाषण दे रहे थे तो भी उन्होंने साफ किया कि आने वाले दिनों में पार्टी हिंदी पट्टी खासकर बिहार में अपनी ताकत झोंकेगी. उन्होंने कार्यकर्ताओं का आह्वान किया कि वे गांवों में जाकर जमीन के मसले पर लड़ाई तेज करें. उन्होंने याद  दिलाया कि बिहार जैसे राज्यों में पार्टी तभी मजबूत रही थी जब उसने जमीन को लेकर लड़ाई लड़ी. नए महासचिव सुधाकर रेड्डी ने भी पार्टी के विस्तार के लिए हिंदी पट्टी में मेहनत का वादा किया.
तो उम्मीद रखी जाये कि आने वाले दिनों में बिहार में कम्युनिस्ट पार्टी की गतिविधियों को देखने का मौका मिलेगा. अभी बिहार विधान सभा में एकमात्र कम्युनिस्ट विधायक है और वह सीपीआई का ही है. इससे कोई इंकार नहीं कर सकता कि इस प्रदेश में आज भी सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी सीपीआई ही है. कई जिलों में आज भी उसका जनाधार तारीफ के काबिल है. महाधिवेशन में आये प्रतिनिधियों से बात करने से लगा कि इस बार वे बिहार में काम  कर रहे माओवादियों के प्रति भी नरम रुख अख्तियार करेंगे. मतलब यह कि इस बार अपनी जमीन को वापस पाने के लिए पार्टी कुछ भी करेगी. अभी पार्टी का राज्य सम्मलेन नहीं हुआ है. एक महीने के भीतर उसके होने की संभावना है. तय मानिये कि उस सम्मलेन के बाद बिहार में लड़ाई देखने को मिलेगी. इस सम्मलेन में पार्टी के कार्यकर्ताओं ने भी जिस तरह मेहनत की उससे अच्छा सन्देश गया है. पार्टी की बिहार इकाई ने इस सम्मलेन के लिए एक करोड़ रूपये से भी अधिक का चंदा जुटाया और इसका अधिकतर हिस्सा पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं ने दिया. किसी भी कम्युनिस्ट पार्टी के लिए यह साधारण बात नहीं है. इसके अलावा दो हजार लोगों के पांच दिनों तक खाने के लिए अनाज कार्यकर्ताओं ने गांवों से जुटाया. जाहिर है कि इस पुरे अभियान में पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं की पूरी ओवर वोयलिंग हो गयी होगी, 
लेकिन इस सारी कवायद का कोई मतलब नहीं होगा यदि इस कांग्रेस के बाद पार्टी के नेता  और कार्यकर्ता शांत होकर पड़ जाय. ऐसा न हो कि कहीं गोली चले और कामरेड पार्टी के सर्कुलर का इंतजार करते रहे. बिहार में गरीबों से बिजली की रोशनी में रहने का अधिकार छीना जा रहा है. राज्य में बिजली इतनी मंहगी हो गयी है कि एक बार फिर गरीब ढिबरी की रौशनी में रहने को विवश हो रहे हैं. इस सवाल को कम्युनिस्ट नहीं उठाएंगे तो फिर कौन उठाएगा. इस कांग्रेस के बाद बिहार की वामपंथी राजनीति में आलोडन आया है और आम लोग उनकी तरफ देख रहे हैं.

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