गुरुवार, 24 नवंबर 2011

पहाड़ से भी भारी मौत !!!!!!


कमलेश




 आम तौर पार माओवादियों के प्रवक्ता के रूप में उनका ढंका चेहरा सामने आता था. चेहरे पर सूती गमछा, फौजी वर्दी और कंधे पर टंगी हुई असाल्ट रायफल. ये थे भारत सरकार के दुश्मन नंबर दो मल्लोजुला कोटेश्वर राव उर्फ़ किशनजी. भाकपा माओवादी के पोलित ब्यूरो के सदस्य, सैन्य गतिविधियों के प्रमुख संचालक और छापामार युद्ध के विशेषज्ञ. पिछले ३१ वर्षों से भूमिगत जीवन जीने वाले और समझौता विहीन संघर्ष में डटे हुवे किशनजी का विश्वास था कि भारत की परिस्थितियाँ क्रांति के अनुकूल हैं और इन्हें कोई रोक नहीं सकता है. उनके मारे जाने की खबर पिछले साल भी उड़ी थी लेकिन बाद में यह अफवाह साबित हुई. इस बार भी पिछले तीन दिनों से वे ख़ुफ़िया एजेंसियों को चकमा दे रहे थे. आजाद के मारे जाने के बाद किशनजी की मौत भाकपा माओवादी के लिए दूसरा बड़ा झटका है.
माना जाता है कि भाकपा माओवादी में महासचिव गणपति के बाद किशनजी का महत्वपूर्ण स्थान था. यही कारण था कि पार्टी की नीतियों को लोगों के सामने रखने के लिए उन्हें ही चुना गया था. ५३ वर्ष के किशनजी उस लालगढ़ आन्दोलन के जनक थे जिसने पूरे देश को हिला कर रख दिया था. अंग्रेजी, हिंदी, बंगला, तेलगु, गोंडी और उड़िया भाषाओ पर एक समान अधिकार रखने वाले किशनजी का पूरा परिवार भाकपा माओवादी से जुड़ा हुआ है.उनकी पत्नी पार्टी की पूरावक्ती कार्यकर्ता हैं तो  उनके इंजीनियर भाई पार्टी की ओर से छत्तीसगढ़ की जिम्मेवारी सँभालते हैं. वे अपने परिवार के बारे में तो कभी बात नहीं करते थे लेकिन एक बार संवाददाताओं के पूछने पर उन्होंने कहा था कि उनके पिता स्वतंत्रता सेनानी थे.
किशनजी का बिहार से सीधा सम्बन्ध तो नहीं था लेकिन बिहार के दो माओवादी संगठनों को एकजुट करने में उनकी प्रमुख भूमिका थी.दिग्गज नक्सलवादी नेता सीतारमैया के साथ १९८० में पीपुल्स वार का उस समय गठन किया था जब देश में नक्सलवादी आन्दोलन बिखराव का शिकार हो चुका था और इसके नेताओं में गहरी निराशा छाई हुई थी.किशनजी उस समय एक संगठक के रूप में सामने आये और सीतारमैया के साथ मिलकर पीपुल्स वार को आंध्र प्रदेश के  अलावा महाराष्ट्र, तमिलनाडु, उड़ीसा, दंदकारान्य और पश्चिम बंगाल की सीमाओं तक पहुचाया. बाद में पीपुल्स वार ने उन्हें बिहार, झारखण्ड, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल का प्रभारी बना दिया. उस समय बिहार के नक्सलवादी संगठन पार्टी यूनिटी और एमसीसी के बीच खुनी झड़पें आम बात थी. किशनजी के नेतृत्व में पीपुल्स वार ने दोनों संगठनों से अलग-अलग बात की. पहले पार्टी यूनिटी और फिर एमसीसी का पीपुल्स वार में विलय हुआ और इस तरह भाकपा माओवादी नामक संगठन अस्तित्व में आया. वही दौर था जब किशनजी पहली बार बिहार के चुने हुए पत्रकारों से झारखण्ड और छत्तीसगढ़ की सीमा पर स्थित एक गांव में मिले थे. लेकिन तब उनसे मिलने वाले पत्रकारों को पता नहीं था कि वे किशनजी से मिल रहे हैं.
(इस लेख का सम्पादित अंश हिंदुस्तान में प्रकाशित हो चुका है. )

बुधवार, 23 नवंबर 2011

जवान होती उम्मीदें

कमलेश
माले क़ी भ्रष्टाचार मिटाओ लोकतंत्र बचाओ रैली ने एक बात साफ कर दी है कि अब बिहार क़ी राजनीति लम्बे समय तक विपक्ष विहीन रहने वाली नही है. आने वाले दिन सुशासन बाबु के लिए खतरनाक हो सकते हैं. माले ने इस रैली में आये लोगों ने जिस तेवर के साथ अपने संघर्षों का एलान किया है उससे लगता है कि आर-पार  कि लड़ाई होगी. रैली में आये गरीबों ने जता दिया कि वे सुशासन के पीछे का असली सच जानते हैं. और वे लम्बे समय तक आंकड़ो क़ी बाजीगरी झेलने के लिए तैयार नहीं हैं.

बिहार में अभी मुख्य मंत्री नीतीश कुमार के लिए सबसे बड़ी राहत क़ी बात यही है कि सूबे में उनके सामने कोई विपक्ष नही है. पिछले छह सालों से वे  बिलकुल बेखटका राज चला रहे हैं. आन्दोलन तो दूर कोई विरोध में बोलने वाला तक नहीं है. राष्ट्रीय जनता दल कहने को तो विधान सभा में मुख्य विपक्षी दल है लेकिन इसके सबसे बड़े नेता लालू प्रसाद अब दिल्ली के वासी हो गए हैं. उनका बिहार आना-जाना प्रवासी नेताओं क़ी तरह ही होता है.  अब तो यह पता ही नहीं चलता कि वे कब पटना आये और कब लौट गए. बिहार सरकार क़ी आलोचना वे बिलकुल औपचारिक अंदाज में करते हैं. उनके दल के  दूसरे  नम्बर के नेता जनता दल यू में शामिल हो गए तो कार्यकर्त्ता ठीकेदारी खोज रहे हैं. अभी पिछले महीने उनकी पार्टी की ओर से आयोजित मार्च भी कोई असर नहीं छोड़ पाया.  राजद के साथ गठबंधन चला रहे लोक जनशक्ति पार्टी के सुप्रीमो राम विलास पासवान के लिए बेटे का फ़िल्मी करियर अहम है. वैसे भी उनकी रही-सही राजनीति राजद ने ख़त्म कर दी है. बिहार में कांग्रेस के बारे में कुछ कहना बेकार है.
ले-देकर वामपंथी दलों से ही उम्मीद बच गयी है. ठीक ऐसे मौके पर माले क़ी रैली  वामपंथी राजनीति में एक आलोड़न  पैदा करने में सफल रही है. अगर माले की दूसरी रैलियों से इसकी तुलना करें तो यह कमजोर दिखाई पड़ सकती है लेकिन अगर नीतीश विरोधी  रैलियों की बात करें तो  यह एक मजबूत रैली थी और इस नाते इसने उम्मीद तो जगाई ही है. उम्मीदें और जवान होने वाली हैं. अगले साल मार्च में सीपीआइ का महाधिवेशन पटना में होने वाला है. उम्मीद कीजिये कि बिहार में जन पक्षधर राजनीति अगले साल करवट ले सकती है. अगर कम्युनिस्टों क़ी ही भाषा में बोले तो आज इतिहास ने बिहार में कम्युनिस्ट पार्टियों के कंधे पर बड़ी जिम्मेदारी डाल दी है. अगर वे आगे बढ़कर इस जिम्मेदारी को पूरा करते हैं तो बिहार क़ी राजनीति में एक बार फिर वे केंद्रीय भूमिका निभाने क़ी स्थिति में होंगे.

  कम्युनिस्ट पार्टियों के पास इसके अलावा कोई चारा भी नहीं है. बिहार क़ी संसदीय राजनीति में एक तरह से उनका अस्तित्व पूरी तरह से ख़त्म हो गया है. आज बिहार विधान सभा में   कम्युनिस्ट पार्टियों क़ी हिस्सेदारी के नाम पर केवल एक सीट  सीपीआइ के नाम पर है. पिछले विधान सभा के चुनाव में माले के सारे विधायक चुनाव हर गए तो माकपा क़ी हालत पहले से पतली चल रही थी. उनके सारे परम्परागत गढ़ ढह गए. माले का भोजपुर वीरान हो गया तो सीपीआइ के बेगुसराय में कोई दम नही रह गया. माकपा का तो वैसे बिहार में पहले से कुछ खास असर नही था. जहाँ था वहां से उनके पांव पहले ही उखड़ चुके थे. समस्तीपुर थोड़ा बाद में पस्त पड़ा पुर्णिया तो बहुत पहले हाथ से निकल चूका था.  बक्सर पहले से अंतिम सांसे ले ही  रहा था. ऐसे में उनके सामने एक ही रास्ता बचता है कि जनसंघर्षों की बदौलत अपनी खोई जमीन फिर से प्राप्त करें. वैसे यह पता है कि कम्युनिस्टों के लिए यह मानना मुश्किल है कि उनकी  जमीन खिसक  रही है. दरअसल अपने को  बिहार की सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी मानने की जिद इसमें बाधक बनती है. बिहार के मेहनतकश  लोग उस दिन का बड़ी शिद्दत से इन्तेजार कर रहे हैं जब ये तीनों कम्युनिस्ट पार्टियां ही नही माओवादी पार्टी के जन संघटन भी कदम से कदम मिलकर लड़ाई शुरू करेंगे. उम्मीद कीजिये की वह समय जल्दी आएगा और बिहार के सामने सचमुच एक वाम जनवादी विकल्प खड़ा होगा.

सोमवार, 21 नवंबर 2011

जाग बाबु जाग

पढिये भोजपुर के वामपंथी मिजाज के लोक कवि विद्यासागर पाण्डेय क़ी एक चर्चित कविता. कवि का मानना है कि ये बात वह नही भारत माता कह रही हैं.

जाग बाबु जाग हमरा दूध के दुलार हो
मुंह बाय अजगर लीले के तइयार हो

खेत करखनावा खदनावा में खटेल
बारहो महिनवा जे तू सीमवा अगोरेल
रक्षमाम रक्षमाम मचल हाहाकार हो
जाग बाबु जाग हमरा दूध के दुलार हो

घुमेली आवारा बनी काम बिनु जवानी
मांगे रोटी पावे गोली देख मेहरबानी
अइसन जनतंत्र के धिकार बा धिकार हो
जाग बाबु जाग हमरा दूध के दुलार हो

काट मुंड काट अतियाचारी बलात्कारी के
बार द लुकार राज बा बनुकधारी के
फेनु से संवार आपन नया संसार हो
जाग बाबु जाग हमरा दूध के दुलार हो

रहिती निपुतिनी कुपूत नाही रहिते
रोटिया के मोल पर न इजती बिकयते
जेकरे बहिन बेटी देख उहे खरीदार हो
जाग बाबु जाग हमरा दूध के दुलार हो

शनिवार, 19 नवंबर 2011

क्रांति का जरूरी हथियार छोड़ रहे कामरेड


क्रांति का जरूरी हथियार छोड़ रहे कामरेड
कमलेश
लगभग एक साल पहले भाकपा माले के एक कार्यकर्ता से बात हो रही थी. वे छात्र संगठन के मोर्चे पर काम करते हैं. बातचीत के ही दौरान भाकपा माले के उन शहीदों क़ी चर्चा होने लगी जिन्होंने किसान अन्दोलनों  के झंझावातों का नेतृत्व किया था. मैं यह देख कर हैरत में पड़  गया कि  उन्हें अपने कई शहीद नेताओं के बारे में पता नहीं था. मसलन वे कमांडर बूटन मुसहर के बारे में कुछ ज्यादा नहीं जानते थे. मेरे लिए आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब उन्होंने कहा कि उन्होंने बिहार के धधकते खेत खलिहान नहीं पढ़ी है. मैंने उनसे साफ कहा - ऐसे तो क्रांति नहीं होगी कामरेड. आपको पढना-लिखना तो पड़ेगा. हालाँकि उन्होंने बड़ी विनम्रता से स्वीकार किया क़ि वे जबसे संगठन में आये हैं तब से लगातार आंदोलनों में व्यस्त हैं. पढने का समय नहीं मिल पा रहा है, लेकिन उस नौजवान कार्यकर्ता ने यह भरोसा दिलाया कि वे जल्दी ही बिहार में कम्युनिस्ट पार्टी के आन्दोलन के बारे पढेंगे और अपनी पार्टी के आन्दोलन के बारे में जरूर पढेंगे. उस घटना के बाद उनसे मुलाकात नहीं हो पाई है लेकिन मैं यह उम्मीद तो कर ही सकता हूँ कि उन्होंने पढाई-लिखाई जरूर क़ी होगी.
  यह अकेले भाकपा माले क़ी बात नहीं है. परंपरागत कम्युनिस्ट पार्टियों क़ी हालत तो और ख़राब है. एक तो इन संगठनों में नए कार्यकर्ता आ नहीं रहे हैं और आ भी रहे हैं तो उनकी ट्रेनिंग या पढाई- लिखाई नहीं हो पा रही है. जिस समय सिंगुर और नंदीग्राम को लेकर कम्युनिस्ट पार्टियों के भीतर देश भर में बहस चल रही थी उस समय मैं बिहार में सीपीआइ के गढ़ बेगुसराय में था. मैं यह देखकर चकित था कि  कार्यकर्ता इस मसले पर अपनी बातों को  ठीक से नहीं रख पा रहे थे. मैंने जब एक कार्यकर्ता से पूछा कि उसने अपनी पार्टी का लिटरेचेर पढ़ा है या नहीं तो उसने कहा कि एक तो  लिटरेचेर देर से आते हैं और नेताओं के पास आते हैं. उन्हें पढने के लिए ये लिटरेचेर काफी देर से मिल पाते  हैं,. किताबें तो पढने क़ी बात ही पूछनी बेकार थी. एक बार पटना में सीपीआइ के छात्र संगठन ए आई एस एफ का प्रदर्शन था. इस प्रदर्शन में आगे आगे कुछ मुस्लिम छात्राएं चल रही थी. इन छात्राओं ने बुरके पहन रखे थे. ए आई एस एफ के एक प्रदेश स्तर के नेता से जब इसके बारे में पुछा गया तो उन्होंने चकित कर दिया. वे पूछने वाले से ही पूछ बैठे कि पर्दा प्रथा में खराबी क्या है. मात्र यही नहीं वे पर्दा प्रथा के समर्थन में तर्क भी देने लगे. अब एक वामपंथी छात्र संगठन का नेता ऐसे तर्क दे तो आप इसे क्या कहेंगे.
पुराने लोगों को याद होगा कि पटना में अमरनाथ रोड में कभी किताबों क़ी एक दुकान हुआ करती थी. पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस क़ी वह दुकान थी. मुझे याद है कि एक दौर में यह दुकान कम्युनिस्ट पार्टियों के युवा कार्यकर्ताओं क़ी गढ़ थी. यहाँ विभिन्न कम्युनिस्ट पार्टियों के कार्यकर्ता तो आते ही थे कई नक्सली व अन्य  वामपंथी जनसंगठनों के कार्यकर्ता भी आते थे. संगठन अपने सदस्यों के चंदे से ढेर सारी किताबें खरीदते थे. इसके बाद उन किताबों को सदस्यों के बीच पढने के लिए दिया जाता था. उस दुकान पर भी आने वाले कार्यकर्ता इतनी जीवंत बहसें करते थे कि सुनने के लिए कई बार भीड़ लग जाती थी. मुझे याद हैं- एक दिन इस दुकान पर कुछ कार्यकर्ता बहस कर रहे थे और उन्हें सुनने के लिए भीड़ जुट गयी थी. एक आदमी ने कहा था- इ सब इतना तेज होकर अपना कैरियर बर्बाद कर रहा है, इ सब को इन्तेहान देकर अफसर बनना चाहिए. उस आदमी क़ी प्रतिक्रिया पर कितनी हंसी गूंजी थी. लेकिन अब वह दुकान बंद हो चुकी है. जिस भवन में यह दुकान थी वहां अब एक होटल खुल गया है.
भागलपुर में एक नक्सली संगठन से जुड़े छात्र संगठन की ओर से स्टडी ग्रुप चलाया जाता था. हर हफ्ते होने वाले इसके डिस्कसन सत्र में भाग लेने के लिए भागलपुर विश्वविद्यालय के कई शिक्षक भी आते थे. कई बार तो पटना के भी छात्र वहां पहुँचते थे. लगभग हर शहर से छात्र-युवा संगठन पत्रिकाएं निकलते थे. लेकिन अब तो न कार्यकर्ता पढ़ते हैं और न नेता पढने देना चाहते हैं. क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि कम्युनिस्ट पार्टियों को व्पने कार्यकर्ताओं की पढाई-लिखाई पर भी थोड़ा ध्यान देना चाहिए. 

गुरुवार, 17 नवंबर 2011

                          
                                  बहरों  को सुनाने के लिये बम के धमाके   की  जरूरत होती   है !

हताशा के अँधेरे में बिहार

हताशा के अँधेरे में बिहार
कमलेश
बिहार विरोधाभासों का राज्य बनता जा रहा है. एक तरफ देश भर में यह प्रचार कि इस राज्य ने विकास क़ी लम्बी छलांग लगाई है तो दूसरी तरफ असंतोष और आक्रोश हर जगह. यह अलग बात है क़ि विकास के प्रचार का डंका तो बज जाता है लेकिन आक्रोश के इजहार क़ी ख़बरें दम तोड़ देती हैं.
 राज्य क़ी सरकार देश भर में अपनी उपलब्धियों का ढिंढोरा जम कर पीट रही है. न केवल सरकार के मंत्री बल्कि राज्य के कई बुद्धिजीवी यह प्रचार करने में जुटे हैं कि बस अब कुछ ही दिनों क़ी बात है कि बिहार देश का सबसे विकसित राज्य हो जायेगा. जम कर आंकड़ों का खेल खेला जा रहा है. हाल में ही राज्य के विकास दर को लेकर जमकर हंगामा मचाया गया कि यह १४ फीसदी के पास पहुँच गयी है. लेकिन सूबे के ही कुछ अर्थशास्त्रियों ने इस दावे कि खिल्ली भी उड़ाई.
  अभी हाल में उन्होंने कई जगहों पर एक नया राग अलापा है. सरकार के मंत्री और मलाईमार  बुद्धिजीवी देश भर में  यह बता रहे हैं कि एक तरफ जबकि पूरे देश में चारपहिया वाहनों क़ी बिक्री घटी है वहीँ बिहार में इसकी बिक्री में जबरदस्त इजाफा हुआ है, वे आंकड़े बता रहे हैं कि बिहार में अभी चारपहिया वाहनों क़ी बिक्री में १२ फीसदी क़ी बढ़ोतरी हो रही है. वाहनों क़ी संख्या में बढ़ोतरी क्यों और कैसे हो रही है, यह एक अलग सवाल है पर जाहिर है कि बिहार सरकार इसे बिहार क़ी सम्पन्नता का प्रतीक मान रही है.
लेकिन जिस समय बिहार सरकार यह आंकड़ा देकर गर्व से अपना माथा ऊपर कर रही है उसी समय एक और आंकड़ा आया है जिसने सोचने वालों के दिमाग में खलबली मचा दी है.  यह आंकड़ा न केवल बिहार सरकार क़ी उपलब्धियों का सच बता रही  हैं बल्कि वे यह भी बताते हैं कि बिहार क़ी युवा पीढ़ी आज किस तरह क़ी निराशा और कुंठा में जी रही है. एक तरह से शायद यह मोह भंग क़ी पराकाष्ठा ही है. राष्ट्रीय क्राइम रिकार्ड ब्यूरो ने अभी हाल में एक आंकड़ा जारी किया है और यह आंकड़ा बताता है क़ि बिहार क़ी राजधानी पटना में आत्महत्या करने की दर देश भर में सबसे ज्यादा है. ब्यूरो के अनुसार पिछले वर्ष २०१० के मुकाबले इस साल आत्महत्या करने वालों क़ी तादाद में १३६.५ फीसदी क़ी बढ़ोतरी हुई है. वर्ष २००९ में पटना में जहाँ ६३ लोगों ने आत्महत्या क़ी वहीँ २०१० में यह संख्या १४९ पर पहुँच गयी. सबसे चिंता क़ी बात यह है कि आत्महत्या करने वालों में लगभग ९० फीसदी संख्या युवाओं क़ी है. आत्महत्या करने वालों में केवल बेरोजगार नौजवान ही शामिल नहीं हैं इनमे ऐसे नौजवान भी शामिल हैं जो मेडिकल कॉलेज या फिर आइ आइ टी के छात्र हैं. जनवरी से लेकर सितम्बर के बीच पटना के नौ छात्रों ने आत्महत्या कर ली. अगर देश के कई राज्य किसानों क़ीआत्महत्या के लिए कुख्यात हो गए हैं तो जल्दी ही बिहार युवाओं क़ी आत्महत्या के लिए चर्चित होने वाला है.  बिहार में किसी भी तरह क़ी नकारात्मक खबर के लिए केंद्र सरकार पर अंगुली उठाने वाली राज्य सरकार यह नहीं कह सकती है कि ये तो आंकड़े केंद्र सरकार के हैं. आखिर राष्ट्रीय क्राइम रिकार्ड ब्यूरो को आत्महत्या जैसी घटनाओ के आंकड़े राज्य सरकार क़ी ही पुलिस तो देती है. सबसे अफ़सोस की बात यह है कि ये आंकड़े उस बिहार के हैं जहाँ के नौजवानों ने प्रतिरोध संघर्षों क़ी मिसाल कायम क़ी है. चाहे १९७४ का छात्र आन्दोलन हो या बिहार के धधकते किसान आन्दोलन सभी आंदोलनों के अगुवा दस्ते के रूप में नौजवान ही रहे हैं. ऐसी विरासत वाले नौजवानों में यदि इस कदर हताशा आई है तो सोचना होगा क़ि गड़बड़ी कहाँ पर है.
दरअसल राज्य में नीतीश कुमार कि सरकार बनने के बाद जैसे घोषणाओ क़ी बाद आ गयी. ऐसा लगा कि देश के सारे उद्योगपति बिहार में निवेश करने के लिए दौड़े चले आ रहे हैं. अब राज्य में कोई भी बेरोजगार नहीं रहेगा. हर साल एक लाख नौजवानों को नौकरी देने तक क़ी घोषणा हुई. कहा गया कि अब राज्य में विधि व्यवस्था कोई समस्या नहीं रही. सरकार क़ी इन घोषणाओ ने युवाओ में ललक भी जगाई और कहा तो ये जाने लगा क़ि प्रदेश में नई सरकार को सबसे ज्यादा युवाओ का समर्थन प्राप्त है,. तब यह भी कहा गया क़ि दुसरे राज्यों में मजदूरी करने वाले लोग वापस बिहार लौट रहे हैं और कई राज्यों में मजदूरों का संकट हो गया है. बात कुछ हद तक सही भी थी. राज्य सरकार ने षिक्षकों, विकास मित्र और न्याय मित्र जैसे पदों के लिए बड़ी संख्या में बहाली निकाली. लेकिन थोड़े ही समय के बाद युवाओ को लगने लगा क़ि वे ठगे जा रहे हैं. जिस काम  के लिए स्थाई शिक्षकों को १५ से २० हजार रुपये प्रतिमाह मिलते हैं उसी काम के लिए इन नए शिक्षकों को ४ से ५ हजार रूपये दिए जाते हैं. अब उनके संगठन  बन गए हैं और वे अपनी सेवा को स्थाई करने के लिए आन्दोलन के रास्ते पर हैं. न्यायमित्रों के लिए तो शुरू से ही वेतन के लाले हैं.
ऐसे आत्महत्या क़ी इन घटनाओ को विकास के साइड इफेक्ट भी कहा जा रहा है. ये कहा जा रहा है कि दुनिया में हर उस जगह ऐसी घटनाएँ हुई हैं जहाँ विकास हुवा है. कहा यह भी जा रहा है कि विकास आता है तो पैसे आते हैं. सपने हजार होते हैं और आदमी का दिमाग असमान में चला जाता है. मगर असलियत तो यही है कि जमीन बहुत कठोर है. हकीकत तो यह है कि लोगों को दो वक्त कि रोटी जुटाने में हालत ख़राब हो जाती है. राज्य क़ी सरकार शायद ही इस मसले को गंभीरता से ले.