मंगलवार, 15 जुलाई 2014

मधुकर सिंह को सलाम



ठीक-ठीक याद नहीं कि पहली बार मधुकर सिंह से कब मिला था। शायद वह 1983 या 84 का साल था और मैं अभी-अभी कॉलेज में गया था। उस समय हम नये रचनाकारों को मधुकर सिंह नायक की तरह लगते थे। उसी समय मैंने पहली बार उनका कहानी संग्रह माई पढ़ा था और एकदम अभिभूत रह गया था। इसके बाद दुश्मन, सोनभद्र की राधा और भी ढेर सारी कहानियां। तब तक मैं उनसे मिला नहीं था लेकिन मुझे लगता था कि मधुकर सिंह कमलेश्वर की तरह ही होंगे।
उस समय भोजपुर और बक्सर दोनों धधक रहे थे। किसान आन्दोलनों के ताप में हम भी जल रहे थे। पढ़ाई, नाटक और साहित्य रचना का काम एक साथ चल रहा था। तब नवजनवादी सांस्कृतिक मोर्चा हुआ करता था और उसकी एक बैठक में मुझे आरा आना पड़ा था। उस बैठक में बिजेन्द्र अनिल, नवेन्दु, श्रीकांत और अनिल चमड़िया के साथ मुझे एक आदमी मिला था। मेरे आते ही उस आदमी ने चबूतरे पर मेरे लिए बैठने की जगह बनाई थी। नवेन्दुजी ने कुरता-पाजामा पहने उस व्यक्ति से मेरा परिचय कराया था-मधुकर सिंहजी से परिचय है ना?  जैसे ही उन्होंने यह बात कही मैं तुरत खड़ा हो गया था। हंसे थे मधुकर सिंह। निश्छल और बच्चों सी हंसी। मेरा हाथ पकड़ा और खींचकर अपने पास बैठा लिया। नवेन्दुजी ने कहा था- ये कमलेश हैं। बक्सर से हैं। लिखते-पढ़ते हैं। मधुकर सिंह ने मेरे कंधे पर हाथ रखकर कहा था- डुमरांव के छात्रों के आन्दोलन पर तुम्हारी रिपोर्ट मैंने जनमत में देखी है। अच्छा लिखा है। खूब पढ़ो और खूब लिखो।
बैठक के बाद मैं बक्सर वापस लौटने के लिए निकला ही था कि मधुकर सिंह ने आवाज दी थी- जल्दी में हो क्या? ट्रेन है सर- मैंने सकुचाते हुए कहा था। मधुकर सिंह ने मेरा हाथ पकड़कर कहा था- दूसरी ट्रेन से चले जाना, चलो चाय पीते हैं। इसके बाद एक चाय की दुकान में बिछी बेंच पर बैठकर दुनिया भर की बातें की थी। मेरी पढ़ाई-लिखाई के बारे में, मेरी रचनाओं के बारे में और मेरे दोस्तों के बारे में। मेरे घर के बारे में पूछा और फिर मां-पिता के बारे में। उन्होंने मुझे कुछ किताबें भी दी। कहा था- कहानी लिखना तो जरूर बताना।
इसके लगभग चार वर्षों के बाद अचानक बक्सर में सृजन संस्कृति मंच ने मेरी और विजयानंद तिवारी की कहानी पाठ का आयोजन किया था। उसमें मधुकर सिंह मुख्य वक्ता थे। कार्यक्रम स्थल पर पहुंचते ही उन्होंने मुझे खोजा और गर्मजोशी से हाथ मिलाया। उन्होंने गौर से मेरी कहानी सुनी थी और उसपर खूब बोला भी था। बाद में मुझे कहा था- शिल्प पर और ज्यादा काम करने की जरूरत है। यह केवल पढ़ने से ही संभव हो पाएगा।
कुछ दिनों के बाद मैं पटना आ गया और पत्रकारिता के काम में लग गया। लेकिन उनकी सूचना मिलती रहती थी। उनकी पत्रिका भी मिलती थी। अचानक एकदिन आज अखबार के दफ्तर में वे मुझे खोजते हुए पहुंच गये थे। थके-थके और बीमार से। मुझसे चाय मंगाने को कहा फिर धीरे से बोले- पत्रिका के काम में बहुत मशक्कत करनी पड़ रही है। तुम अपनी कहानी मुझे दो। इस बार के अगले अंक में तुम्हारी कहानी लेनी है। मेरे लिए यह बहुत बड़ी बात थी और दो दिनों के बाद मैं उन्हें अपनी कहानी देने गया था। हालांकि न तो उनकी पत्रिका का अगला अंक प्रकाशित हो सका और न मैं उनसे कहानी वापस लेने का साहस कर सका।
कुछ दिनों के बाद वे मुझे भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी और कथाकार सुभाष शर्मा के यहां मिले और अखबारों में छप रही खबरों को लेकर खूब खरी-खोटी सुनाई थी। कहा था- तुमलोग अखबार में हो फिर भी जनता की लड़ाई अखबारों से बाहर हो रही है। मैं चुपचाप सुनता रहा था। हालांकि उन्होंने फिर कहा भी था- तुमलोगों की विवशता भी मैं जानता हूं। इसके बाद हमलोग पैदल कुछ दूर तक टहलते हुए गये थे। उनके साथ कोई और था जो बार-बार रिक्शा लेने की जिद कर रहा था। लेकिन वे तैयार नहीं हुए थे। परीक्षा समिति के दफ्तर से संग्रहालय तक वे मेरे साथ पैदल आये थे और घर पर मिलने आने के लिए कहा था। तब वे पटना में ही कहीं कमरा किराये पर लेकर रहते थे। लेकिन उनसे फिर कभी मिलना नहीं हो सका। हां उनके बारे में खबरें मिलती रहती थी। उनकी बीमारी के बारे में ज्यादा। अचानक उनके निधन की भी खबर मिली। उनका जाना सचमुच दुखदायी है। नये रचनाकारों को प्रेरित करने वाले रचनाकार अब कहां है? उनकी रचनाओं की तरह उनकी यादों को सुरक्षित रखना होगा ताकि आने वाली पीढ़ियों को हम उनके बारे में बता सकें। मधुकर सिंह को सलाम।

गुरुवार, 19 जून 2014

विचार ही बदलते हैं दुनिया को


अभी हाल में एक वरिष्ठ पत्रकार का इंटरव्यू पढ़ रहा था। इसमें उन्होंने कहा है कि अब विचारों से दुनिया नहीं बदलती है। अब तकनीक ही है जो दुनिया को बदल रही है। अब मैं यह नहीं जानता कि इंटरव्यू में उस वरिष्ठ पत्रकार ने ठीक-ठीक क्या यही कहा था या फिर उन्होंने कहा कुछ दूसरी बात और इंटव्यू लेने वाले साथी समझ गये कुछ और। लेकिन उस पूरे इंटरव्यू को पढ़ने से जो बात छन कर आ रही है वह यही है कि दुनिया को बदलना है तो विचारों से लैस होने की जरूरत नहीं है तकनीक से लैस होना पहली शर्त है।
जब मैं इस इंटरव्यू को पढ़ रहा था तो देश के एक और चर्चित पत्रकार याद आ रहे थे जिन्होंने कुछ दिनों पहले गांधी मैदान में आयोजित पुस्तक मेले में अपने एक व्याख्यान में कहा था कि अगर आपके पास तकनीक है तो आप ठगे नहीं जाएंगे। तकनीक ने आपको पूरी तरह सक्षम बना दिया है और इसके लिए अब किसी खास विचार की जरूरत नहीं है। उस व्याख्यान में उन्होंने वामपंथी पत्रिकाओं का हवाला भी दिया था जिससे यह पता चला था कि विचारों से उनका मतलब वामपंथी विचार ही है। ये दोनों चर्चित और वरिष्ठ पत्रकार ये बात कुछ अलग नहीं कह रहे हैं। दरअसल पूरी दुनिया में और खासकर अपने देश में कुछ ज्यादा यह चर्चा हो रही है। अपने देश में बुद्धिजीवियों की एक जमात है जो मानती है कि अब यदि आप दुनिया को बदलने की बात सोचते हैं तो विचारों को भूल जाइये। विचार अब अप्रासंगिक हैं और उनकी जरूरत अब पिछड़ी मानसिकता वालों को ही है।
सही है। तकनीक के महत्व को कोई भी नकार नहीं सकता है। तकनीक तब भी महत्वपूर्ण थी जब आदमी ढ़ोल और नगाड़े पीटकर अपने संदेश लोगों तक पहुंचाता था और आज भी उससे आप किनारा नहीं कर सकते जब आप सोशल नेटवर्किंग साइट पर अपनी बात पूरी दुनिया में क्षण भर में पहुंचाते हैं। लेकिन सवाल यह है कि इस तकनीक के बल पर आप क्या करते हैं? सोशल नेटवर्किंग साइट या तकनीक का जो भी अद्यतन माध्यम हैं उसके बल पर आप क्या करते हैं? जाहिर सी बात है कि आप अपनी बात कहते हैं या दूसरों की बातें समझने की कोशिश करते हैं। सूचनाओं से लैस होने की कोशिश करते हैं। अपनी बात कहने, दूसरों की बात समझने का मतलब क्या है? सूचनाओं से लैसे होने का उद्देश्य क्या है? या ते आप अपने विचारों को वहां रखते हैं या दूसरों के विचारों को समझने की कोशिश करते हैं। सूचनाओं के बल पर आप अपने विचारों को पुष्ट करते हैं। उन्हें एक तार्किक आधार देने की कोशिश करते हैं। तो तकनीक क्या हुई? विचारों का संवाहक ही न? अगर आपके पास विचार न हों तो आप इंटरनेट का क्या करेंगे? जाहिर सी बात है किे पोर्न साइट देखेंगे।
दोस्तों ऐसे हजारों उदाहरण हैं जहां विचार के बगैर तकनीक किस तरह आदमी को बरबाद करती है? याद कीजिए हाल में नमक की कमी हो जाने की अफवाह। मुठ्ठी भर लोगों ने मोबाइल जैसी अति आधुनिक तकनीक के बल पर इस अफवाह को सच्चाई बना दिया और एक दिन में सैकड़ों टन नमक बिक गया। टेलीविजन जैसी आधुनिक तकनीक विचारहीनता के कारण किस तरह समाज को पीछे धकेल रही है। सुबह में बाबाओं की जमात की किस तरह टेलीविजन के बल पर लोगों को बेवकूफ बनाने में लगी रहती है। मोबाइल यदि आपके  पास है और आपके अंदर विवेक (जाहिर है कि यह विचार से जुड़ा मसला है) नहीं है तो आप किस तरह ठगे जा रहे हैं इसके सैकड़ों उदाहरण मौजूद हैं।
कुछ दिनों पहले तक यह मानकर चला जाता था कॉम डॉट (कॉमरेड का संक्षिप्त रूप) दुनिया को बदलता है क्योंकि उसके पास विचार होता है। लेकिन कुछ लोगों ने इसे उलट दिया है और उनका कहना है कि डॉट कॉम (इंटरनेट या आधुनिक तकनीक) ही दुनिया को बदल सकता  है। क्या विचारों के बगैर आप खड़े हो सकते हैं? दुनिया आज भी विचारों के बल पर ही बदली जा सकती है।  

गुरुवार, 27 मार्च 2014

एक-एक कर ढ़ह गये बिहार में वामपंथियों के गढ़


कमलेश
वामपंथियों के प्रिय कवि मुक्तिबोध की कविता है- तोड़ने ही होंगे गढ़ और मठ पुराने सभी, उठाने ही होंगे अभिव्यक्ति के खतरे तमाम। बिहार में वामपंथियों ने अपने विरोधियों के कितने गढ़ और मठ तोड़े ये तो नहीं पता लेकिन उन्होंने अपने सभी पुराने गढ़ जरूर ध्वस्त कर दिये। उनके जनाधार पर उन्हीं लोगों का कब्जा हो गया जिन्हें वामपंथियों ने अपना साथी बनाकर गलबहियां की थी। एक जमाना था कि बिहार वामपंथियों का मजबूत गढ़ माना जाता था। कभी बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता भाकपा के कद्दावर नेता सुनील मुखर्जी हुआ करते थे। इस सूबे के कई लोकसभा क्षेत्रों को मास्को और लेनिनग्राद के नाम से याद किया जाता था लेकिन आज यहां यह हालत है कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मात्र दो लोकसभा क्षेत्रों से चुनाव लड़ रही है जबकि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी माक्र्सवादी को एक भी क्षेत्र से चुनाव लड़ने का मौका नहीं मिल पा रहा हे। यह जरूर है कि भाकपा माले के उम्मीदवार 23 सीटों से चुनाव लड़ रहे हैं लेकिन इन 23 क्षेत्रों में भी अने वाले दिनों में यह देखना दिलचस्प होगा कि वह कितने सीटों पर मुकाबले में रह पाती है। 
लोकसभा चुनावों के दौरान बिहार में वामपंथियों की धमक पहली बार 1962 में सुनाई पड़ी थी जब बेगूसराय से भाकपा के वाई शर्मा, पटना से रामावतार शास्त्री और जहानाबाद से चंद्रशेखर सिंह चुनाव जीतकर संसद पहुंचे थे। 1971 के लोकसभा चुनाव में यह संख्या बढ़ी और केसरिया (बाद में मोतीहरी और अब पूर्वी चम्पारण) से कमला मिश्र मधुकर, जयनगर (मधुबनी) से भोगेन्द्र झा, जमुई से भेला मांझी, पटना से रामावतार शास्त्री अ‍ैर जहानाबाद से एक बार फिर चंद्रशेखर सिंह भाकपा के टिकट पर चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचे थे। लेकिन 1977 में जनता पार्टी की आंधी में वामपंथियों की पताका बिखर गई और उन्हें बिहार से एक भी सीट नहीं मिल सकी। 1980 में वामपथियों ने एक बार फिर अपनी ताकत जुटाई और भाकपा ने फिर बिहार की चार सीटों पर कब्जा जमाया। इनमें मोतीहारी से कमला मिश्र मधुकर, बलिया से सूर्यनारायण सिंह, नालंदा से विजय कुमार यादव और पटना से एक बार फिर रामावतार शास्त्री ने जीत हसिल की।
1984 लोकसभा चुनाव में पटना की सीट पहली बार भाकपा के हाथ से निकली और फिर कभी इस पर भाकपा का कब्जा नहीं हो सका। अब तो इस सीट से भाकपा के उम्मीदवार भी चुनाव नहीं लड़ते। 1984 में मात्र दो सीटों पर भाकपा की विजय पताका लहराई। नालंदा से विजय कुमार यादव और जहानाबाद से रामाश्रय प्रसाद सिंह  चुनाव जीतकर संसद पहुंचे। 1989 के चुनाव में एक बार फिर भाकपा का तो जलवा दिखा ही पहली बार माकपा ने भी बिहार में अपनी जीत दर्ज कराई। इस चुनाव में भाकपा के उम्मीदवार के रूप में मधुबनी से भोगेन्द्र झा, बलिया से सूर्यनारायण सिंह, बक्सर से तेजनारायण सिंह और जहानाबाद से रामाश्रय प्रसाद सिंह जीते जबकि नवादा में पहली बार माकपा उम्मीदवार के प्रेम प्रदीप जीत कर संसद पहुंचे। इसी चुनाव में आईपीएफ (अब भाकपा माले) के उम्मीदवार के रूप में रामेश्वर प्रसाद पहली बार आरा से चुनाव जीतकर संसद पहुंचे थे। 1991 का चुनाव बिहार में भाकपा के लिए सबसे अच्छा चुनाव रहा। इस चुनाव में मोतीहारी से कमला मिश्र मधुकर, मधुबनी से भोगेन्द्र झा, बलिया से सूर्यनाराण सिंह, मुंगेर से ब्रह्मानंद मंडल, नालंदा से विजय कुमार यादव, बक्सर से तेजनारायण सिंह भाकपा उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीते जबकि नवादा माकपा के उम्मीदवार के रूप में प्रेमचंद राय चुनाव जीते। 1996 में मधुबनी से चतुरानन मिश्र, बलिया से शत्रुघ्न प्रसाद सिंह और जहानाबाद से रामाश्रय प्रसाद सिंह चुनाव जीते। इसके बाद बिहार से भाकपा का कोई नेता लोकसभा का चेहरा नहीं देख सका। हां, 1999 में भागलपुर से माकपा उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीतकर सुबोध राय लोकसभा पहुंचे और इसके बाद माकपा का भी खाता नहीं खुला।
इसके बाद से वामपंथियों के नसीब में कभी जीत नहीं आई। बेगूसराय लोकसभा क्षेत्र से भाकपा के उम्मीदवारों ने हर बार मजबूत टक्कर जरूर दी लेकिन कभी जीत नहीं सके। ए.एन. समाज अध्ययन संस्थान के निदेशक और समाजशास्त्री डॉ. डी.एम. दिवाकर का मानना है कि बिहार में वामपंथी अपने एजेंडे से भटकने की सजा पा रहे हैं। बिहार में जबतक इनके एजेंडे पर भूमि सुधार, न्यूनतम मजदूरी और गरीबी निवारण जैसे मुद्दे मुखर रहे तबतक जनता भी इनके साथ रही लेकिन जब वामपंथियों ने इन सवालों को छोड़ दिया तो जनता ने भी उनका साथ छोड़ दिया। डॉ. दिवाकर के अनुसार बिहार में वामपंथियों का आधार मुख्य रूप से अनुसूचित जाति, जनजाति और कृषि श्रमिकों के बीच था। अगर वामपंथी इनके मसलों को लेकर आन्दोलन करते तो ये वर्ग जाति के आधार पर नहीं बंटते। निचली जातियों ने जब यह देखा कि वामपंथी उनके मसलों के नहीं उठा रहे हैं तो ये जातियां  जातिवादी दलों के साथ चली गई और वामपंथियों के गढ़ एक-एक कर ध्वस्त होते चले गये।