शुक्रवार, 6 जनवरी 2012

ऐसे भी रहते हैं लोग


आलोक कुमार
अस्पताल की बेड की जगह बालू के ढेर पर बनी अस्थाई झोपड़ी.  झोपड़ी भी अनोखी. फूस और सरकंडे की जगह प्लास्टिक की बोरियों की छत और मच्छरदानी की दीवार. नतीजा हवा-पानी तो दूर ओस की बूँदें भी नहीं रूक पाती. इसके बावजूद एक नहीं दर्जन भर से अधिक कैंसर पीड़ित मरीज और उनके परिजन इस स्थिति में रहने को मजबूर हैं. लिहाजा कई मरीजों के साथ आये परिजनों के भी मरीज बनने की आशंका बनी रहती है.
यह बानगी गांव-गिरांव के किसी पी एच सी की नहीं बल्कि राजधानी के साथ-साथ देश स्तर पर चर्चित हो चुके महावीर कैंसर हॉस्पिटल सह शोध संस्थान की है. जब अस्पताल में गरीब मरीजों की सुविधा की पड़ताल करने की कोशिश की गयी तो यह तल्ख़ हकीकत सामने आयी. अस्पताल के भीतरी परिसर में केन्टीन के बाहर खाली पड़े स्थान पर  निर्माण के लिए बालू और छड़ गिराया हुआ है. बालू के ढेर पर छड़ के सहारे प्लास्टिक के बोरों से एक दर्जन से अधिक लोग झोपड़े बना कर रह रहे हैं. वहीँ खाना बना रहे हैं और वहीँ खा भी रहे हैं. गोपालगंज के रेवती थकाम गांव से आये हैं सत्यदेव साह. इन्हें छः महीने पहले ही बीमारी का पता चला है. अभी सेकाई कराने आये हैं. साथ में परिजन हैं. कहने लगे २०-२५ दिन हो गए बाबू इसी तरह से रहते हुए. सेकाई की फीस देने में ही सारे पैसे खर्च हो गए. अन्दर में बगैर पैसे के कोई रहने नहीं देता.
गोपालगंज के ही बैकुंठपुर के श्यामपुर गांव से आयी हैं रिम्पू देवी अपनी माँ का इलाज कराने. लेकिन ओस में रहने से इनकी खुद की तबीयत ख़राब हो गयी है. सर्दी-बुखार हो गया है. इसके बावजूद मां को अकेले नहीं छोड़ सकती. सो खुले में ही रहने को मजबूर हैं. भागलपुर के महेंद्र महतो की मानें तो वे एक महीने का इलाज कराने के लिए छः हजार रूपये जमा कर चुके हैं. लेकिन रहने के लिए अस्पताल में कमरा नहीं मिलता. गार्ड कहता है कि यह अस्पताल है डेरा नहीं. जाओ कहीं बाहर में डेरा खोज कर रहो. बाबू हम गरीब लोग हैं. भैंस बेच कर इलाज कराने आये हैं. ऐसे में रहने पार सारा पैसा खर्च कर देंगे तो इलाज कैसे करायेंगे. सरकार को चाहिए कि   कैंसर के मरीजों को रेल में फ्री पास बना दिया जाये ताकि इलाज कराने पटना आने में कोई परेशानी न हो. पुर्णिया के अब्दुल हन्नान अपने बेटे मो. जहरूल का इलाज कराने आये हैं. उन्होंने बताया कि वे एक एक महीने से इसी तरह रह रहे हैं. सबसे ज्यादा परेशानी खाना बनाने और खाने के वक्त होती है. खाने के दौरान बालू मुंह में चला जाता है. लेकिन क्या करें, हमलोगों के लिए और कोई चारा नहीं है. भागलपुर के रोहित ने बताया कि बीस दिनों से वह इसी तरह रह रहा है अपने पापा शम्भू यादव के साथ. उनकी सेकाई चल रही है.
उधर  महावीर कैंसर हॉस्पिटल सह शोध संस्थान के धर्मशाला की कहानी हरी अनंत हरी कथा अनंता वाली है. एक बानगी देखिये. कैम्पस के अन्दर दाखिल होते ही चार-पांच लोग केयर टेकर का इंतजार करते मिले. जब केयर टेकर का दरवाजा खटखटाया गया तो रामचंद्र नामक एक आदमी बाहर आया. आते ही झल्लाते हुए कहा- का है जी. जवाब दिया गया कि कमरा चाहिए. जवाब मिला- दो दिन के बाद भेंट कीजियेगा. ५५ रुपया किराया लगेगा.



आलोक कुमार बिहार के युवा पत्रकार हैं. आम लोगों की पीड़ा से जुड़ना और उनके बारे में लिखना इनकी विशेषता है, आलोक से उनके फोन नम्बर 9431488489 पर संपर्क किया जा सकता है. 

सोमवार, 2 जनवरी 2012

उतरने लगा भोजपुरी फिल्मों का जादू


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कमलेश

चलिए ये साल ख़त्म हुआ. पुराना राजा मर गया, नया   राजा जिंदाबाद की तर्ज पर हमने जमकर बधाइयाँ दी और ली. इस साल के आखिरी हफ्ते में अपने जिले भोजपुर के इलाकों में घूम रहा था. मेरे लिए हैरत की बात थी कि इस बार उधर के अधिकतर सिनेमा हॉल में हिंदी फ़िल्में लगी थी. भोजपुरी फ़िल्में नाम मात्र की. फिल्मों में मेरी रूचि थोड़ी कम रही है लेकिन अपनी भाषा होने के कारण भोजपुरी फिल्मों को लेकर थोड़ी दिलचस्पी रहती है. मैंने भोजपुरी फिल्मों के निर्माण से जुड़े अपने एक दोस्त से कहा था कि भोजपुरी फ़िल्में बन तो खूब रही हैं लेकिन इधर दिखाई नहीं पड़ रही है. इसपर उसने एक सिनेमा हॉल के मालिक से मेरी बात कराई तो मैं चौंक पड़ा. उसका कहना था कि अब हॉल में भोजपुरी फ़िल्में लगाना घाटे का सौदा साबित हो रहा है. उसके अनुसार लागत और कमाई के हिसाब से पिटी हुई  हिंदी फिल्म भी भोजपुरी के मुकाबले ठीक-ठाक रहती है.  तो फिर भोजपुरी फिल्मों में पैसा क्यों लगाया जाये.
इस बात से मेरी समझ में नही आ रहा था कि खुश होऊं या दुखी. अभी हाल में रामधारी सिंह दिवाकर की  कहानी मखान पोखर पर एक भोजपुरी फिल्म बनी है. इस फिल्म का नाम तो आम भोजपुरी फिल्मों की ही तरह था- जिन्दगी ह गाड़ी, सैया ड्राईवर बीबी खलासी.  इसकी पटकथा लिखने वाले  अपने कवि मित्र निलय उपाध्याय  के उत्साह को देखकर मैं भी थोड़ा उत्साहित था. मुझे उम्मीद थी कि यह फिल्म चलेगी और ठीक-ठाक चलेगी. लेकिन बाद के दिनों में इसका हश्र देखकर मैं चिंतित हुआ. यह दूसरी भोजपुरी फिल्म थी जो किसी चर्चित साहित्यकार की कहानी पर बनी
थी.      इससे पहले मधुकर सिंह कि कहानी सोनभद्र की राधा पर दूल्हा गंगा पार के नाम से फिल्म बनी थी. वो फिल्म चली तो खूब थी लेकिन मधुकरजी की शिकायत थी कि इस फिल्म में उनकी कहानी कि मूल आत्मा ही नष्ट हो गयी है. खैर सैया ड्राईवर बीबी खलासी के नहीं चल पाने कि खबर पर मुझे हाल में ही भोजपुरी फिल्म बनाने वाले एक मुम्बइया  निर्माता की बात याद आई- मैं भी कहाँ फंस गया.ज्यादा दिन नहीं हुए जब भोजपुरी फिल्मों का बुखार लोगों के सर चढ़ कर बोल रहा था. आम लोगों कि बात छोड़िये कई प्रगतिशील कहे जाने वाले बुद्धिजीवी भी भोजपुरी फिल्मों की धुन में राग अलाप रहे थे. जगह-जगह इस पर गोष्ठियां हो रही थी और लोग अनन्य भक्ति भाव से रविकिशन और मनोज तिवारी के व्याख्यान सुन रहे थे. भोजपुरी फिल्मों के महानायक कहे जाने वाले कुणाल इस बात से दुखी थे कि भोजपुर क्षेत्र के लोग परिवार के साथ भोजपुरी फिल्मों को देखने नहीं आते हैं. हाल में कुछ बुद्धिजीवियों द्वारा आयोजित  इन गोष्ठियों में कभी भोजपुरी फिल्मों के नाम पर परोसी जा रही अश्लीलता क़ी चर्चा नहीं होती थी लेकिन इसके व्यापक बाजार को लेकर खूब बहस हो रही थी. बिहार के एक फिल्म आलोचक तो इन फिल्मों के पक्ष में लहना पानी लेकर उतर आये थे. अश्लीलता के मामले में भोजपुरी फिल्मों के निर्माता-निर्देशकों का तर्क पिछले कई वर्षों से जारी है कि भोजपुरी भाषी इलाके के लोग यही देखना पसंद करते हैं और इसीलिए वे यही दिखाते हैं.
लेकिन अब ऐसा लगता है कि हालात अचानक बदल गए हैं. देखते-देखते जैसे इन फिल्मों का जादू उतरने लगा है. हालत यह हो गयी कि धूम धड़ाके के साथ बनी भोजपुरी फिल्म देसवा को खरीदार तक नहीं मिले. फिल्म की निर्माता और अभिनेत्री नीतू चन्द्रा  को इसे खुद रिलीज करना पड़ा. उन्होने ताम-झाम के साथ इसे मल्टीप्लेक्स में रिलीज किया. लेकिन जानकारों का कहना है कि वहां इस फिल्म का बाजा बजा हुआ है. करीब डेढ़ करोड़ की लागत से बनी फिल्म हमार देवदास में पैसा लगाने वाले लोग अपना माथा पकड़ के बैठे हैं. माना जा रहा है कि यह फिल्म अपनी लागत का आधा पैसा भी निकाल ले तो बहुत है. गुजरे साल में भोजपुरी फिल्मों के सबसे बड़े स्टार कहे जाने वाले मनोज तिवारी और रविकिशन क़ी अधिकतर फ़िल्में पानी मांगती नजर आयी. राहुल राय की धूम-धाम के साथ रिलीज हुई एलान भी कब थिएटरो में आकर चली गयी इसका पता ही नहीं चला. निरहुआ और पवन सिंह की कई फिल्मों के पोस्टर सिनेमा हाल की शोभा भर बन कर रह गए. भोजपुरी फिल्मों पर नजर रखने वालों का मानना है कि  सौ करोड़ का कारोबार करने वाली भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री के लिए ये साल बहुत ख़राब हुआ. इस वर्ष रिलीज हुई ९० फीसदी फ़िल्में बॉक्स ऑफिस पर ओंधे मुंह गिरी. इस साल ६५ फ़िल्में रिलीज हुई हैं. इसमें बस पांच के बारे में माना जा रहा है कि ये ठीक-ठाक चल गयीं. इसमें तो पांच बड़े बजट की फिल्मों को भी लोगों ने नकार दिया. इस साल साजन  चले ससुराल, औलाद, दिलजले, इंसाफ और ट्रक ड्राईवर को ठीक-ठाक चलने वाली फिल्म माना जा रहा है.
तो इसका मतलब यह हुआ कि भोजपुरी भाषी लोगों ने यह बता दिया है कि वे अब तक तो वही कुछ देखते आ रहे थे जो उन्हें दिखाया जा रहा था लेकिन अब ऐसा नहीं होगा. उन्होंने बड़ी तेजी से भोजपुरी फिल्मों को नकारना शुरू कर दिया है. इसके साथ ही  भोजपुरी फिल्मों के बाजार का भ्रम टूट रहा है. जिस तेजी से इस इंडस्ट्री में पैसा आया उससे ऐसी उम्मीद नहीं थी. फिल्मों के बनने की रफ्तार में बला की तेजी आयी तो पिटने की रफ़्तार भी तेज हुई.लेकिन पहले ऐसा नहीं होता था. एक दौर ऐसा भी था जब साल भर या छः महीने पर एक भोजपुरी फिल्म आती थी और लोग उसका इंतजार करते थे. मेरी मां ने एक बार कहा था कि जब लागी नाहीं छूटे रामा बनी थी तो पूरे इलाके के लोगों ने इस फिल्म के आने का इन्तेजार किया था. इसे देखने के लिए वह भीड़ उमड़ी थी कि कई हिंदी फिल्मों के निर्माता-निर्देशकों को जलन हुई होगी. मेरे गांव के लोग बैलगाड़ी और ट्रक्टर पर लदकर बक्सर गए थे इस फिल्म को देखने. सैकड़ों लोगों ने अलका सिनेमा हॉल के बाहर अगले दिन के शो के लिए रात-रात भर इंतजार किया था. मुझे खुद याद है जब भोजपुरी कि पहली रंगीन फिल्म दंगल लगी थी. आम तौर पर फिल्म देखने के नाम पर ही चिढ जाने वाले मेरे बाबा ने कहा था कि अपने भाषा की फिल्म है इसे जरूर देखना चाहिए. तब वे ही नहीं गांव के कई लोग अपने परिवार के साथ इस फिल्म को देखने गए थे. नजीर हुसेन साहब की फिल्म रूस गईले सैयां हमार और बलम परदेसिया देखने के लिए कालेज के लड़के कैसे पागल हुए थे ये तो बहुत लोगों को याद है.
तब भोजपुरी क्षेत्र के लोग ही इन फिल्मों के निर्माण में आते थे. बजट काफी कम होता था इसलिए ये फ़िल्में बिजनेस भी अच्छा करती थी. हालाँकि उस समय भी भोजपुरी फिल्म बनाने का मतलब घर फूंक कर तमाशा देखना ही माना जाता था. अशोक जैन जैसे लोगों ने कई ऐसी फ़िल्में बनाई जिनकी चर्चा अच्छी-खासी हुई थी.
माना जाता है कि हाल के दिनों में भोजपुरी फिल्मों में बूम ससुरा बड़ा पईसा वाला से आया. लेकिन यही दौर रहा जब भोजपुरी फ़िल्में आम अवाम और परिवार से कटने लगी. नाम और कथानक दोनों से ये फ़िल्में भोजपुरी संस्कृति को नकारने लगी. लोग ये मानने लगे कि भोजपुरी फ़िल्में परिवार के साथ देखने लायक नहीं होती हैं. यही वह दौर था जब बिहार के अपहरण उद्योग का पैसा भी भोजपुरी फिल्मों में आया और फिर तो इस इंडस्ट्री में भी जैसे पैसा लगाने का रास्ता खुल गया. इसके बाद तो भोजपुरी फ़िल्में हिंदी फिल्मों के फ्लॉप लोगों के लिए पनाहगाह हो गयी. भोजपुरी फिल्मों की लागत बढ़ने लगी. जहाँ कभी लाखों की बात होती थी वहां अब कोई करोड़ से नीचे की बात ही नही करता था. जब पैसा आने लगा तो उसके साथ तमाम तरह की बुराइयाँ भी आई. भोजपुरी फ़िल्में हिंदी फिल्मों की भोंडी रिमेक लगने लगी. आइटम डांस के नाम पर ऐसी अश्लीलता परोसी जाने लगी कि एक दौर की सी ग्रेड की हिंदी फ़िल्में भी पनाह मांगने लगी. हाल हाल तक ग्रामीण पृष्ठभूमि के शहरों में ये फ़िल्में खूब चल रही थी. लेकिन बढती अश्लीलता के कारण अब उन इलाकों के भी लोग परिवार के साथ ये फ़िल्में नहीं देखना चाहते. दुःख तो यह है कि इसका नतीजा जिन्दगी ह गाड़ी, सैया ड्राईवर बीबी खलासी जैसी फ़िल्में भी भुगत रही हैं. पुरानी कहावत है- जौ के साथै घुनो पिसाला.