शनिवार, 19 नवंबर 2011

क्रांति का जरूरी हथियार छोड़ रहे कामरेड


क्रांति का जरूरी हथियार छोड़ रहे कामरेड
कमलेश
लगभग एक साल पहले भाकपा माले के एक कार्यकर्ता से बात हो रही थी. वे छात्र संगठन के मोर्चे पर काम करते हैं. बातचीत के ही दौरान भाकपा माले के उन शहीदों क़ी चर्चा होने लगी जिन्होंने किसान अन्दोलनों  के झंझावातों का नेतृत्व किया था. मैं यह देख कर हैरत में पड़  गया कि  उन्हें अपने कई शहीद नेताओं के बारे में पता नहीं था. मसलन वे कमांडर बूटन मुसहर के बारे में कुछ ज्यादा नहीं जानते थे. मेरे लिए आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब उन्होंने कहा कि उन्होंने बिहार के धधकते खेत खलिहान नहीं पढ़ी है. मैंने उनसे साफ कहा - ऐसे तो क्रांति नहीं होगी कामरेड. आपको पढना-लिखना तो पड़ेगा. हालाँकि उन्होंने बड़ी विनम्रता से स्वीकार किया क़ि वे जबसे संगठन में आये हैं तब से लगातार आंदोलनों में व्यस्त हैं. पढने का समय नहीं मिल पा रहा है, लेकिन उस नौजवान कार्यकर्ता ने यह भरोसा दिलाया कि वे जल्दी ही बिहार में कम्युनिस्ट पार्टी के आन्दोलन के बारे पढेंगे और अपनी पार्टी के आन्दोलन के बारे में जरूर पढेंगे. उस घटना के बाद उनसे मुलाकात नहीं हो पाई है लेकिन मैं यह उम्मीद तो कर ही सकता हूँ कि उन्होंने पढाई-लिखाई जरूर क़ी होगी.
  यह अकेले भाकपा माले क़ी बात नहीं है. परंपरागत कम्युनिस्ट पार्टियों क़ी हालत तो और ख़राब है. एक तो इन संगठनों में नए कार्यकर्ता आ नहीं रहे हैं और आ भी रहे हैं तो उनकी ट्रेनिंग या पढाई- लिखाई नहीं हो पा रही है. जिस समय सिंगुर और नंदीग्राम को लेकर कम्युनिस्ट पार्टियों के भीतर देश भर में बहस चल रही थी उस समय मैं बिहार में सीपीआइ के गढ़ बेगुसराय में था. मैं यह देखकर चकित था कि  कार्यकर्ता इस मसले पर अपनी बातों को  ठीक से नहीं रख पा रहे थे. मैंने जब एक कार्यकर्ता से पूछा कि उसने अपनी पार्टी का लिटरेचेर पढ़ा है या नहीं तो उसने कहा कि एक तो  लिटरेचेर देर से आते हैं और नेताओं के पास आते हैं. उन्हें पढने के लिए ये लिटरेचेर काफी देर से मिल पाते  हैं,. किताबें तो पढने क़ी बात ही पूछनी बेकार थी. एक बार पटना में सीपीआइ के छात्र संगठन ए आई एस एफ का प्रदर्शन था. इस प्रदर्शन में आगे आगे कुछ मुस्लिम छात्राएं चल रही थी. इन छात्राओं ने बुरके पहन रखे थे. ए आई एस एफ के एक प्रदेश स्तर के नेता से जब इसके बारे में पुछा गया तो उन्होंने चकित कर दिया. वे पूछने वाले से ही पूछ बैठे कि पर्दा प्रथा में खराबी क्या है. मात्र यही नहीं वे पर्दा प्रथा के समर्थन में तर्क भी देने लगे. अब एक वामपंथी छात्र संगठन का नेता ऐसे तर्क दे तो आप इसे क्या कहेंगे.
पुराने लोगों को याद होगा कि पटना में अमरनाथ रोड में कभी किताबों क़ी एक दुकान हुआ करती थी. पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस क़ी वह दुकान थी. मुझे याद है कि एक दौर में यह दुकान कम्युनिस्ट पार्टियों के युवा कार्यकर्ताओं क़ी गढ़ थी. यहाँ विभिन्न कम्युनिस्ट पार्टियों के कार्यकर्ता तो आते ही थे कई नक्सली व अन्य  वामपंथी जनसंगठनों के कार्यकर्ता भी आते थे. संगठन अपने सदस्यों के चंदे से ढेर सारी किताबें खरीदते थे. इसके बाद उन किताबों को सदस्यों के बीच पढने के लिए दिया जाता था. उस दुकान पर भी आने वाले कार्यकर्ता इतनी जीवंत बहसें करते थे कि सुनने के लिए कई बार भीड़ लग जाती थी. मुझे याद हैं- एक दिन इस दुकान पर कुछ कार्यकर्ता बहस कर रहे थे और उन्हें सुनने के लिए भीड़ जुट गयी थी. एक आदमी ने कहा था- इ सब इतना तेज होकर अपना कैरियर बर्बाद कर रहा है, इ सब को इन्तेहान देकर अफसर बनना चाहिए. उस आदमी क़ी प्रतिक्रिया पर कितनी हंसी गूंजी थी. लेकिन अब वह दुकान बंद हो चुकी है. जिस भवन में यह दुकान थी वहां अब एक होटल खुल गया है.
भागलपुर में एक नक्सली संगठन से जुड़े छात्र संगठन की ओर से स्टडी ग्रुप चलाया जाता था. हर हफ्ते होने वाले इसके डिस्कसन सत्र में भाग लेने के लिए भागलपुर विश्वविद्यालय के कई शिक्षक भी आते थे. कई बार तो पटना के भी छात्र वहां पहुँचते थे. लगभग हर शहर से छात्र-युवा संगठन पत्रिकाएं निकलते थे. लेकिन अब तो न कार्यकर्ता पढ़ते हैं और न नेता पढने देना चाहते हैं. क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि कम्युनिस्ट पार्टियों को व्पने कार्यकर्ताओं की पढाई-लिखाई पर भी थोड़ा ध्यान देना चाहिए. 

1 टिप्पणी:

  1. कमलेश भाई आपने यह निष्कर्श ऐसा लगता है एकाघ उदाहरणों के आधार पर बना लिया है जो कि ठीक नहीं है.मेरे खयाल पढ़्ने-लिखने की परम्परा में गिरावट न सिर्फ़ वामपंथी पार्टियों के कार्य्कर्ताओम में बल्कि हर जगह कम हुई है ऐसे में लेफ़्ट पार्टी को दोष देना ठीक नहीं है.मैं तो ये कहुंगा वामपंथी कार्यकर्ता बाकी पार्टियों के मुकाबले ज्यादा सुशिक्षित हैं अभी भी.आपको तुलनात्मक रुप से देखना चाहिये और इतनी जल्दी किसी नतीजे पर पहुंचने से बचना चाहिये.किन ये आप तो समझदार आदमी हैं ले्किन ये देखेम कि पढ़्ने-लिखने की आम परंपरा में गिरावट आई है ऐसे मे किसी एक दल को चिन्हित करना ठीक नहीं.मैं तो ये कहंगा कि अगर कोई कार्यकर्ता शिक्षित नहीम है तो वो वामपंथी पार्टी में तो नहीं टिक पायेगा.ये पढ़ाई और वामपंथी द्रुष्टिकोण ही है जो एक कार्य्कर्ता को टिका के रंख्ता है अन्य्था वो किसी दूसरे दल में होता.

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