शुक्रवार, 3 अगस्त 2012

विकास के दौर में महिलाओं की जगह

विकास के दौर में महिलाओं की जगह

कमलेश


सीएसडीएस की ओर से प्रकाशित पुस्तक भारत का भूमंडलीकरण में अभय कुमार दुबे का एक लेख है- पितृसत्ता के रूप। इस लेख में एक जगह कहा गया है कि जब पूरी दुनिया में भूमंडलीकरण का दौर शुरू हुआ था तो नारीवादी चिंतक सिंथिया एनलो ने पूछा था- क्या तुम्हारी इस व्यवस्था में महिलाओं के लिए कोई जगह है? इस एक सवाल ने भूमंडलीकरण के बाद बदली हुई दुनिया में औरतों की जगह बता दी थी।  मुझे लगता है कि वक्त आ गया है कि बिहार की महिलाओं को भी अब  यहां की सरकार से यही सवाल पूछना चाहिए- क्या तुम्हारे इस विकास में महिलाओं के लिए कोई जगह है? क्या इस सूबे में कोई ऐसी जगह है जहां वे अपनी अस्मिता के साथ सुरक्षित रह सकें? इस राज्य में जो कुछ भी हो रहा है अगर उसे विकास कहते हैं तो उसकी सबसे बड़ी कीमत इस प्रदेश की महिलाएं चुका रही हैं।

अभय कुमार दुबे अपने उसी लेख में कहते हैं कि आज के दौर में यह बात लगभग सच साबित हो चुकी है कि इतिहास के किसी भी कालखंड में महिलाओं का उतना शोषण और दोहन नहीं हुआ है जितना इस दुनिया में अकेले भूमंडलीकरण के बाद हुआ है। मुझे लगता है कि यही बात बिहार के मामले में भी सच है। पिछले सात वर्षों में विकास के शोर के बीच महिलाओं की चीख जिस तरह दबती रही है उतना शायद किसी और कालखंड में नहीं हुआ।


महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाएं बेतहाशा बढ़ी हैं, उनके साथ मारपीट और यहां तक कि उनकी हत्या करने की घटनाओं पर कहीं कोई नियंत्रण नहीं है। पॉश इलाकों में चकलाघर खुले हैं। बड़े-बड़े अपार्टमेंटों में ऐसे फ्लैट पकड़े गए हैं जहां धंधेबाज दूर-दराज की महिलाओं को लाकर वेश्यावृति कराते हैं। 
पटना में एक छात्रा के साथ हुआ गैंग रेप तो एक कड़ी की तरह है। इसके ठीक बाद नालंदा  की दो छात्राओं ने कहा कि उनके साथ कुछ लोगों ने सामूहिक बलात्कार किया है। पुलिस ने तफ्तीश के बाद बड़े ही शर्मनाक लहजे में कहा कि दोनों लड़कियां सेक्सुअली हैबिचुएटेड हैं। इसके साथ यह भाव भी छिपा हुआ था कि अगर लड़कियां ऐसी हैं तो उनके साथ कुछ भी जायज है। इस घटना के 48 घंटे भी नहीं बीते कि सीवान में एक डॉक्टर के पास एक नवविवाहिता अल्ट्रासाउंड कराने गई और डॉक्टर ने उसके साथ बलात्कार किया। पिछले साल अगस्त महीने में सारण जिले के मांझी थाने में एक छात्रा के साथ पुलिसकर्मियों ने सामूहिक बलात्कार किया। पिछले साल ही बगहा के एक थाने में एक महिला के साथ पुलिसकर्मियों ने सामूहिक बलात्कार किया। पिछले साल की शुरुआत में ही एक महिला ने एक भाजपा विधायक राजकिशोर की चाकू मारकर हत्या कर दी। उसका आरोप था कि विधायक ने उसकी इज्जत लूटी थी और और अब वह बराबर उसके साथ हमबिस्तर होने की मांग कर रहा था। महिला हत्या के बाद से ही जेल में है।

ये सारी घटनाएं ऐसे दौर में हो रही है जब बिहार में यह दावा किया जा रहा है कि यहां महिलाएं सशक्त हो रही है। बार-बार ऐसे चित्र दिखाये जा रहे हैं कि गांवों में लड़कियां साइकिल से स्कूल जा रही हैं, लड़कियां स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से बड़े-बड़े काम कर रही हैं, लड़कियां पुलिस में जा रही है और लड़कियां खेतों का काम संभाल रही हैं। इसके साथ ही और भी न जाने क्या-क्या?  राजधानी में बताया जाता है कि महिलाएं रात के 12 बजे परिवार के साथ बोरिंग रोड चौराहे पर आइसक्रीम खाने आती है। और ठीक ऐसे ही समय में यह बात भुला दी जाती है कि दिन के उजाले में राजवंशीनगर जैसे पॉश इलाके में दिन-दहाड़े कुछ लोग मिलकर एक लड़की की इज्जत लूट लेते हैं और नेहरूनगर में दिन के 11 बजे कुछ लोग घर में घुसकर महिला प्राचार्य की हत्या कर देते हैं। मतलब यह कि इस विकास के दौर का सच यह भी है कि बिहार की राजधानी पटना में महिलाओं पर हमले के लिए रात का इंतजार करने की कोई जरूरत नहीं। उनपर दिन में हमले कर सकते हो और वे अपने घर में भी हों तो भी उनपर हमले कर सकते हो। विकास के बड़े-बड़े चित्र और और बड़ी तेज आवाजें। इन आवाजों में अक्सर महिलाओं की चीख दब जाती है।

इसमें दो राय नहीं कि हाल के दिनों में लड़कियों में कुछ बनकर दिखाने का जो उछाह पैदा हुआ है वह इतिहास के किसी दूसरे कालखंड में दिखाई नहीं पड़ता है। आप उन्हें साइकिल न भी दें तो भी स्कूल जाने का जो आवेग उनके भीतर पैदा हुआ है वह मरेगा नहीं। हाल में हुई शिक्षक और बैंक में नियुक्ति की परीक्षाओं में महिलाओं की भागीदारी देखकर कई लोगों ने दांतों तले अंगुली दबाई थी। लेकिन साथ में ही यह भी सच है कि जितनी तेजी से महिलाएं आगे बढ़ने का प्रयास कर रही हैं उतनी ही तेजी से उनके खिलाफ हमले भी बढ़ रहे हैं। हमले भी हर तरह के लोग कर रहे हैं। इसके लिए हमलावर का अनपढ़ या अपराधी होना जरूरी नहीं। हमला हर वर्ग की तरफ से होता है। कभी हमलावर प्रलिस होती है तो कभी दबंग तो कभी पुरुष साथी। डॉक्टर और इंजीनियर जैसे पढ़े-लिखे लोग भी इस मामले में पीछे नहीं होते। अगर सामने लड़की हुई तो फिर सारी पढ़ाई-लिखाई गई गतालखाते मे। अगर अपनी साइकिल बनवाने आई एक छोटी बच्ची के साथ मिस्त्री दुष्कर्म करने की कोशिश करता है तो दूसरी तरफ एक डॉक्टर अपनी ही मरीज महिला की इज्जत से खेलता है। जहां महिलाओं की अस्मिता पर हमले का मामला आता है वहां सभी एक स्तर पर आ जाते हैं- डॉक्टर से लेकर साइकिल मिस्त्री तक।


मीडिया भी इस मामले में कहां पीछे रहती है? उसने बलात्कार पीड़िता को ही आरोपों के घेरे में ला दिया। राजधानी में हुए गैंग रेप के बाद मीडिया के एक हिस्से ने यह खबर उड़ाई कि बलात्कार की शिकार लड़की जब भी दुकान पर जाती थी तो चॉकलेट के बड़े-बड़े डब्बे खरीदती थी और वह हमेशा दुकानों में हजार या पांच सौ रुपये के ही नोट देती थी। जिस हिस्से ने यह खबर उड़ाई थी उसके इरादे साफ थे क्योंकि इतना बताने के साथ वह यह भी बता रहा था कि उस लड़की के घरवाले काफी गरीब हैं। मीडिया का यह हिस्सा यह खबर उड़ाकर कहना क्या चाहता था, यह साफ है।



 एक इलेक्ट्रॉनिक चैनल ने तो एक बलात्कारी को ही अपने यहां बुला लिया। वहां भी इरादा खुला हुआ था- बलात्कार को लाइव दिखा नहीं सकते तो बलात्कार की कहानी ही लाइव सुना दीजिए। जितनी देर उस बलात्कारी का इंटरव्यू चला उतनी देर तक एंकर का अंदाज उस बलात्कारी को महिमामंडित करने वाला था। दावा किया गया कि वह बलात्कारी चैनल में आत्मसमर्पण करने पहुंचा है। हद तो तब हो गई जब उसकी गिरफ्तारी के बाद एक पत्रकार ने पुलिस अधिकारी से सवाल किया कि चूंकि आरोपित ने आत्मसमर्पण किया है इसलिए उसके प्रति क्या नरमी का व्यवहार किया जाएगा?


लेकिन हालात बिगड़ रहे हैं तो सवाल भी खड़े हो रहे हैं। सवाल लोगों को झिंझोड़ भी रहे हैं। बिहार के महिला संगठन इस मसले को मजबूती से उठा रहे हैं और पुलिस को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं। उम्मीद है कि विकास के परदे के पीछे  का सच भी जल्दी ही लोग समझने लगेंगे।

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