ठीक-ठीक याद नहीं कि पहली बार मधुकर सिंह से कब मिला था। शायद वह 1983 या 84 का साल था और मैं अभी-अभी कॉलेज में गया था। उस समय हम नये रचनाकारों को मधुकर सिंह नायक की तरह लगते थे। उसी समय मैंने पहली बार उनका कहानी संग्रह माई पढ़ा था और एकदम अभिभूत रह गया था। इसके बाद दुश्मन, सोनभद्र की राधा और भी ढेर सारी कहानियां। तब तक मैं उनसे मिला नहीं था लेकिन मुझे लगता था कि मधुकर सिंह कमलेश्वर की तरह ही होंगे।
उस समय भोजपुर और बक्सर दोनों धधक रहे थे। किसान आन्दोलनों के ताप में हम भी जल रहे थे। पढ़ाई, नाटक और साहित्य रचना का काम एक साथ चल रहा था। तब नवजनवादी सांस्कृतिक मोर्चा हुआ करता था और उसकी एक बैठक में मुझे आरा आना पड़ा था। उस बैठक में बिजेन्द्र अनिल, नवेन्दु, श्रीकांत और अनिल चमड़िया के साथ मुझे एक आदमी मिला था। मेरे आते ही उस आदमी ने चबूतरे पर मेरे लिए बैठने की जगह बनाई थी। नवेन्दुजी ने कुरता-पाजामा पहने उस व्यक्ति से मेरा परिचय कराया था-मधुकर सिंहजी से परिचय है ना? जैसे ही उन्होंने यह बात कही मैं तुरत खड़ा हो गया था। हंसे थे मधुकर सिंह। निश्छल और बच्चों सी हंसी। मेरा हाथ पकड़ा और खींचकर अपने पास बैठा लिया। नवेन्दुजी ने कहा था- ये कमलेश हैं। बक्सर से हैं। लिखते-पढ़ते हैं। मधुकर सिंह ने मेरे कंधे पर हाथ रखकर कहा था- डुमरांव के छात्रों के आन्दोलन पर तुम्हारी रिपोर्ट मैंने जनमत में देखी है। अच्छा लिखा है। खूब पढ़ो और खूब लिखो।
बैठक के बाद मैं बक्सर वापस लौटने के लिए निकला ही था कि मधुकर सिंह ने आवाज दी थी- जल्दी में हो क्या? ट्रेन है सर- मैंने सकुचाते हुए कहा था। मधुकर सिंह ने मेरा हाथ पकड़कर कहा था- दूसरी ट्रेन से चले जाना, चलो चाय पीते हैं। इसके बाद एक चाय की दुकान में बिछी बेंच पर बैठकर दुनिया भर की बातें की थी। मेरी पढ़ाई-लिखाई के बारे में, मेरी रचनाओं के बारे में और मेरे दोस्तों के बारे में। मेरे घर के बारे में पूछा और फिर मां-पिता के बारे में। उन्होंने मुझे कुछ किताबें भी दी। कहा था- कहानी लिखना तो जरूर बताना।
इसके लगभग चार वर्षों के बाद अचानक बक्सर में सृजन संस्कृति मंच ने मेरी और विजयानंद तिवारी की कहानी पाठ का आयोजन किया था। उसमें मधुकर सिंह मुख्य वक्ता थे। कार्यक्रम स्थल पर पहुंचते ही उन्होंने मुझे खोजा और गर्मजोशी से हाथ मिलाया। उन्होंने गौर से मेरी कहानी सुनी थी और उसपर खूब बोला भी था। बाद में मुझे कहा था- शिल्प पर और ज्यादा काम करने की जरूरत है। यह केवल पढ़ने से ही संभव हो पाएगा।
कुछ दिनों के बाद मैं पटना आ गया और पत्रकारिता के काम में लग गया। लेकिन उनकी सूचना मिलती रहती थी। उनकी पत्रिका भी मिलती थी। अचानक एकदिन आज अखबार के दफ्तर में वे मुझे खोजते हुए पहुंच गये थे। थके-थके और बीमार से। मुझसे चाय मंगाने को कहा फिर धीरे से बोले- पत्रिका के काम में बहुत मशक्कत करनी पड़ रही है। तुम अपनी कहानी मुझे दो। इस बार के अगले अंक में तुम्हारी कहानी लेनी है। मेरे लिए यह बहुत बड़ी बात थी और दो दिनों के बाद मैं उन्हें अपनी कहानी देने गया था। हालांकि न तो उनकी पत्रिका का अगला अंक प्रकाशित हो सका और न मैं उनसे कहानी वापस लेने का साहस कर सका।
कुछ दिनों के बाद वे मुझे भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी और कथाकार सुभाष शर्मा के यहां मिले और अखबारों में छप रही खबरों को लेकर खूब खरी-खोटी सुनाई थी। कहा था- तुमलोग अखबार में हो फिर भी जनता की लड़ाई अखबारों से बाहर हो रही है। मैं चुपचाप सुनता रहा था। हालांकि उन्होंने फिर कहा भी था- तुमलोगों की विवशता भी मैं जानता हूं। इसके बाद हमलोग पैदल कुछ दूर तक टहलते हुए गये थे। उनके साथ कोई और था जो बार-बार रिक्शा लेने की जिद कर रहा था। लेकिन वे तैयार नहीं हुए थे। परीक्षा समिति के दफ्तर से संग्रहालय तक वे मेरे साथ पैदल आये थे और घर पर मिलने आने के लिए कहा था। तब वे पटना में ही कहीं कमरा किराये पर लेकर रहते थे। लेकिन उनसे फिर कभी मिलना नहीं हो सका। हां उनके बारे में खबरें मिलती रहती थी। उनकी बीमारी के बारे में ज्यादा। अचानक उनके निधन की भी खबर मिली। उनका जाना सचमुच दुखदायी है। नये रचनाकारों को प्रेरित करने वाले रचनाकार अब कहां है? उनकी रचनाओं की तरह उनकी यादों को सुरक्षित रखना होगा ताकि आने वाली पीढ़ियों को हम उनके बारे में बता सकें। मधुकर सिंह को सलाम।