मंगलवार, 15 जुलाई 2014

मधुकर सिंह को सलाम



ठीक-ठीक याद नहीं कि पहली बार मधुकर सिंह से कब मिला था। शायद वह 1983 या 84 का साल था और मैं अभी-अभी कॉलेज में गया था। उस समय हम नये रचनाकारों को मधुकर सिंह नायक की तरह लगते थे। उसी समय मैंने पहली बार उनका कहानी संग्रह माई पढ़ा था और एकदम अभिभूत रह गया था। इसके बाद दुश्मन, सोनभद्र की राधा और भी ढेर सारी कहानियां। तब तक मैं उनसे मिला नहीं था लेकिन मुझे लगता था कि मधुकर सिंह कमलेश्वर की तरह ही होंगे।
उस समय भोजपुर और बक्सर दोनों धधक रहे थे। किसान आन्दोलनों के ताप में हम भी जल रहे थे। पढ़ाई, नाटक और साहित्य रचना का काम एक साथ चल रहा था। तब नवजनवादी सांस्कृतिक मोर्चा हुआ करता था और उसकी एक बैठक में मुझे आरा आना पड़ा था। उस बैठक में बिजेन्द्र अनिल, नवेन्दु, श्रीकांत और अनिल चमड़िया के साथ मुझे एक आदमी मिला था। मेरे आते ही उस आदमी ने चबूतरे पर मेरे लिए बैठने की जगह बनाई थी। नवेन्दुजी ने कुरता-पाजामा पहने उस व्यक्ति से मेरा परिचय कराया था-मधुकर सिंहजी से परिचय है ना?  जैसे ही उन्होंने यह बात कही मैं तुरत खड़ा हो गया था। हंसे थे मधुकर सिंह। निश्छल और बच्चों सी हंसी। मेरा हाथ पकड़ा और खींचकर अपने पास बैठा लिया। नवेन्दुजी ने कहा था- ये कमलेश हैं। बक्सर से हैं। लिखते-पढ़ते हैं। मधुकर सिंह ने मेरे कंधे पर हाथ रखकर कहा था- डुमरांव के छात्रों के आन्दोलन पर तुम्हारी रिपोर्ट मैंने जनमत में देखी है। अच्छा लिखा है। खूब पढ़ो और खूब लिखो।
बैठक के बाद मैं बक्सर वापस लौटने के लिए निकला ही था कि मधुकर सिंह ने आवाज दी थी- जल्दी में हो क्या? ट्रेन है सर- मैंने सकुचाते हुए कहा था। मधुकर सिंह ने मेरा हाथ पकड़कर कहा था- दूसरी ट्रेन से चले जाना, चलो चाय पीते हैं। इसके बाद एक चाय की दुकान में बिछी बेंच पर बैठकर दुनिया भर की बातें की थी। मेरी पढ़ाई-लिखाई के बारे में, मेरी रचनाओं के बारे में और मेरे दोस्तों के बारे में। मेरे घर के बारे में पूछा और फिर मां-पिता के बारे में। उन्होंने मुझे कुछ किताबें भी दी। कहा था- कहानी लिखना तो जरूर बताना।
इसके लगभग चार वर्षों के बाद अचानक बक्सर में सृजन संस्कृति मंच ने मेरी और विजयानंद तिवारी की कहानी पाठ का आयोजन किया था। उसमें मधुकर सिंह मुख्य वक्ता थे। कार्यक्रम स्थल पर पहुंचते ही उन्होंने मुझे खोजा और गर्मजोशी से हाथ मिलाया। उन्होंने गौर से मेरी कहानी सुनी थी और उसपर खूब बोला भी था। बाद में मुझे कहा था- शिल्प पर और ज्यादा काम करने की जरूरत है। यह केवल पढ़ने से ही संभव हो पाएगा।
कुछ दिनों के बाद मैं पटना आ गया और पत्रकारिता के काम में लग गया। लेकिन उनकी सूचना मिलती रहती थी। उनकी पत्रिका भी मिलती थी। अचानक एकदिन आज अखबार के दफ्तर में वे मुझे खोजते हुए पहुंच गये थे। थके-थके और बीमार से। मुझसे चाय मंगाने को कहा फिर धीरे से बोले- पत्रिका के काम में बहुत मशक्कत करनी पड़ रही है। तुम अपनी कहानी मुझे दो। इस बार के अगले अंक में तुम्हारी कहानी लेनी है। मेरे लिए यह बहुत बड़ी बात थी और दो दिनों के बाद मैं उन्हें अपनी कहानी देने गया था। हालांकि न तो उनकी पत्रिका का अगला अंक प्रकाशित हो सका और न मैं उनसे कहानी वापस लेने का साहस कर सका।
कुछ दिनों के बाद वे मुझे भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी और कथाकार सुभाष शर्मा के यहां मिले और अखबारों में छप रही खबरों को लेकर खूब खरी-खोटी सुनाई थी। कहा था- तुमलोग अखबार में हो फिर भी जनता की लड़ाई अखबारों से बाहर हो रही है। मैं चुपचाप सुनता रहा था। हालांकि उन्होंने फिर कहा भी था- तुमलोगों की विवशता भी मैं जानता हूं। इसके बाद हमलोग पैदल कुछ दूर तक टहलते हुए गये थे। उनके साथ कोई और था जो बार-बार रिक्शा लेने की जिद कर रहा था। लेकिन वे तैयार नहीं हुए थे। परीक्षा समिति के दफ्तर से संग्रहालय तक वे मेरे साथ पैदल आये थे और घर पर मिलने आने के लिए कहा था। तब वे पटना में ही कहीं कमरा किराये पर लेकर रहते थे। लेकिन उनसे फिर कभी मिलना नहीं हो सका। हां उनके बारे में खबरें मिलती रहती थी। उनकी बीमारी के बारे में ज्यादा। अचानक उनके निधन की भी खबर मिली। उनका जाना सचमुच दुखदायी है। नये रचनाकारों को प्रेरित करने वाले रचनाकार अब कहां है? उनकी रचनाओं की तरह उनकी यादों को सुरक्षित रखना होगा ताकि आने वाली पीढ़ियों को हम उनके बारे में बता सकें। मधुकर सिंह को सलाम।

गुरुवार, 19 जून 2014

विचार ही बदलते हैं दुनिया को


अभी हाल में एक वरिष्ठ पत्रकार का इंटरव्यू पढ़ रहा था। इसमें उन्होंने कहा है कि अब विचारों से दुनिया नहीं बदलती है। अब तकनीक ही है जो दुनिया को बदल रही है। अब मैं यह नहीं जानता कि इंटरव्यू में उस वरिष्ठ पत्रकार ने ठीक-ठीक क्या यही कहा था या फिर उन्होंने कहा कुछ दूसरी बात और इंटव्यू लेने वाले साथी समझ गये कुछ और। लेकिन उस पूरे इंटरव्यू को पढ़ने से जो बात छन कर आ रही है वह यही है कि दुनिया को बदलना है तो विचारों से लैस होने की जरूरत नहीं है तकनीक से लैस होना पहली शर्त है।
जब मैं इस इंटरव्यू को पढ़ रहा था तो देश के एक और चर्चित पत्रकार याद आ रहे थे जिन्होंने कुछ दिनों पहले गांधी मैदान में आयोजित पुस्तक मेले में अपने एक व्याख्यान में कहा था कि अगर आपके पास तकनीक है तो आप ठगे नहीं जाएंगे। तकनीक ने आपको पूरी तरह सक्षम बना दिया है और इसके लिए अब किसी खास विचार की जरूरत नहीं है। उस व्याख्यान में उन्होंने वामपंथी पत्रिकाओं का हवाला भी दिया था जिससे यह पता चला था कि विचारों से उनका मतलब वामपंथी विचार ही है। ये दोनों चर्चित और वरिष्ठ पत्रकार ये बात कुछ अलग नहीं कह रहे हैं। दरअसल पूरी दुनिया में और खासकर अपने देश में कुछ ज्यादा यह चर्चा हो रही है। अपने देश में बुद्धिजीवियों की एक जमात है जो मानती है कि अब यदि आप दुनिया को बदलने की बात सोचते हैं तो विचारों को भूल जाइये। विचार अब अप्रासंगिक हैं और उनकी जरूरत अब पिछड़ी मानसिकता वालों को ही है।
सही है। तकनीक के महत्व को कोई भी नकार नहीं सकता है। तकनीक तब भी महत्वपूर्ण थी जब आदमी ढ़ोल और नगाड़े पीटकर अपने संदेश लोगों तक पहुंचाता था और आज भी उससे आप किनारा नहीं कर सकते जब आप सोशल नेटवर्किंग साइट पर अपनी बात पूरी दुनिया में क्षण भर में पहुंचाते हैं। लेकिन सवाल यह है कि इस तकनीक के बल पर आप क्या करते हैं? सोशल नेटवर्किंग साइट या तकनीक का जो भी अद्यतन माध्यम हैं उसके बल पर आप क्या करते हैं? जाहिर सी बात है कि आप अपनी बात कहते हैं या दूसरों की बातें समझने की कोशिश करते हैं। सूचनाओं से लैस होने की कोशिश करते हैं। अपनी बात कहने, दूसरों की बात समझने का मतलब क्या है? सूचनाओं से लैसे होने का उद्देश्य क्या है? या ते आप अपने विचारों को वहां रखते हैं या दूसरों के विचारों को समझने की कोशिश करते हैं। सूचनाओं के बल पर आप अपने विचारों को पुष्ट करते हैं। उन्हें एक तार्किक आधार देने की कोशिश करते हैं। तो तकनीक क्या हुई? विचारों का संवाहक ही न? अगर आपके पास विचार न हों तो आप इंटरनेट का क्या करेंगे? जाहिर सी बात है किे पोर्न साइट देखेंगे।
दोस्तों ऐसे हजारों उदाहरण हैं जहां विचार के बगैर तकनीक किस तरह आदमी को बरबाद करती है? याद कीजिए हाल में नमक की कमी हो जाने की अफवाह। मुठ्ठी भर लोगों ने मोबाइल जैसी अति आधुनिक तकनीक के बल पर इस अफवाह को सच्चाई बना दिया और एक दिन में सैकड़ों टन नमक बिक गया। टेलीविजन जैसी आधुनिक तकनीक विचारहीनता के कारण किस तरह समाज को पीछे धकेल रही है। सुबह में बाबाओं की जमात की किस तरह टेलीविजन के बल पर लोगों को बेवकूफ बनाने में लगी रहती है। मोबाइल यदि आपके  पास है और आपके अंदर विवेक (जाहिर है कि यह विचार से जुड़ा मसला है) नहीं है तो आप किस तरह ठगे जा रहे हैं इसके सैकड़ों उदाहरण मौजूद हैं।
कुछ दिनों पहले तक यह मानकर चला जाता था कॉम डॉट (कॉमरेड का संक्षिप्त रूप) दुनिया को बदलता है क्योंकि उसके पास विचार होता है। लेकिन कुछ लोगों ने इसे उलट दिया है और उनका कहना है कि डॉट कॉम (इंटरनेट या आधुनिक तकनीक) ही दुनिया को बदल सकता  है। क्या विचारों के बगैर आप खड़े हो सकते हैं? दुनिया आज भी विचारों के बल पर ही बदली जा सकती है।  

गुरुवार, 27 मार्च 2014

एक-एक कर ढ़ह गये बिहार में वामपंथियों के गढ़


कमलेश
वामपंथियों के प्रिय कवि मुक्तिबोध की कविता है- तोड़ने ही होंगे गढ़ और मठ पुराने सभी, उठाने ही होंगे अभिव्यक्ति के खतरे तमाम। बिहार में वामपंथियों ने अपने विरोधियों के कितने गढ़ और मठ तोड़े ये तो नहीं पता लेकिन उन्होंने अपने सभी पुराने गढ़ जरूर ध्वस्त कर दिये। उनके जनाधार पर उन्हीं लोगों का कब्जा हो गया जिन्हें वामपंथियों ने अपना साथी बनाकर गलबहियां की थी। एक जमाना था कि बिहार वामपंथियों का मजबूत गढ़ माना जाता था। कभी बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता भाकपा के कद्दावर नेता सुनील मुखर्जी हुआ करते थे। इस सूबे के कई लोकसभा क्षेत्रों को मास्को और लेनिनग्राद के नाम से याद किया जाता था लेकिन आज यहां यह हालत है कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मात्र दो लोकसभा क्षेत्रों से चुनाव लड़ रही है जबकि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी माक्र्सवादी को एक भी क्षेत्र से चुनाव लड़ने का मौका नहीं मिल पा रहा हे। यह जरूर है कि भाकपा माले के उम्मीदवार 23 सीटों से चुनाव लड़ रहे हैं लेकिन इन 23 क्षेत्रों में भी अने वाले दिनों में यह देखना दिलचस्प होगा कि वह कितने सीटों पर मुकाबले में रह पाती है। 
लोकसभा चुनावों के दौरान बिहार में वामपंथियों की धमक पहली बार 1962 में सुनाई पड़ी थी जब बेगूसराय से भाकपा के वाई शर्मा, पटना से रामावतार शास्त्री और जहानाबाद से चंद्रशेखर सिंह चुनाव जीतकर संसद पहुंचे थे। 1971 के लोकसभा चुनाव में यह संख्या बढ़ी और केसरिया (बाद में मोतीहरी और अब पूर्वी चम्पारण) से कमला मिश्र मधुकर, जयनगर (मधुबनी) से भोगेन्द्र झा, जमुई से भेला मांझी, पटना से रामावतार शास्त्री अ‍ैर जहानाबाद से एक बार फिर चंद्रशेखर सिंह भाकपा के टिकट पर चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचे थे। लेकिन 1977 में जनता पार्टी की आंधी में वामपंथियों की पताका बिखर गई और उन्हें बिहार से एक भी सीट नहीं मिल सकी। 1980 में वामपथियों ने एक बार फिर अपनी ताकत जुटाई और भाकपा ने फिर बिहार की चार सीटों पर कब्जा जमाया। इनमें मोतीहारी से कमला मिश्र मधुकर, बलिया से सूर्यनारायण सिंह, नालंदा से विजय कुमार यादव और पटना से एक बार फिर रामावतार शास्त्री ने जीत हसिल की।
1984 लोकसभा चुनाव में पटना की सीट पहली बार भाकपा के हाथ से निकली और फिर कभी इस पर भाकपा का कब्जा नहीं हो सका। अब तो इस सीट से भाकपा के उम्मीदवार भी चुनाव नहीं लड़ते। 1984 में मात्र दो सीटों पर भाकपा की विजय पताका लहराई। नालंदा से विजय कुमार यादव और जहानाबाद से रामाश्रय प्रसाद सिंह  चुनाव जीतकर संसद पहुंचे। 1989 के चुनाव में एक बार फिर भाकपा का तो जलवा दिखा ही पहली बार माकपा ने भी बिहार में अपनी जीत दर्ज कराई। इस चुनाव में भाकपा के उम्मीदवार के रूप में मधुबनी से भोगेन्द्र झा, बलिया से सूर्यनारायण सिंह, बक्सर से तेजनारायण सिंह और जहानाबाद से रामाश्रय प्रसाद सिंह जीते जबकि नवादा में पहली बार माकपा उम्मीदवार के प्रेम प्रदीप जीत कर संसद पहुंचे। इसी चुनाव में आईपीएफ (अब भाकपा माले) के उम्मीदवार के रूप में रामेश्वर प्रसाद पहली बार आरा से चुनाव जीतकर संसद पहुंचे थे। 1991 का चुनाव बिहार में भाकपा के लिए सबसे अच्छा चुनाव रहा। इस चुनाव में मोतीहारी से कमला मिश्र मधुकर, मधुबनी से भोगेन्द्र झा, बलिया से सूर्यनाराण सिंह, मुंगेर से ब्रह्मानंद मंडल, नालंदा से विजय कुमार यादव, बक्सर से तेजनारायण सिंह भाकपा उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीते जबकि नवादा माकपा के उम्मीदवार के रूप में प्रेमचंद राय चुनाव जीते। 1996 में मधुबनी से चतुरानन मिश्र, बलिया से शत्रुघ्न प्रसाद सिंह और जहानाबाद से रामाश्रय प्रसाद सिंह चुनाव जीते। इसके बाद बिहार से भाकपा का कोई नेता लोकसभा का चेहरा नहीं देख सका। हां, 1999 में भागलपुर से माकपा उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीतकर सुबोध राय लोकसभा पहुंचे और इसके बाद माकपा का भी खाता नहीं खुला।
इसके बाद से वामपंथियों के नसीब में कभी जीत नहीं आई। बेगूसराय लोकसभा क्षेत्र से भाकपा के उम्मीदवारों ने हर बार मजबूत टक्कर जरूर दी लेकिन कभी जीत नहीं सके। ए.एन. समाज अध्ययन संस्थान के निदेशक और समाजशास्त्री डॉ. डी.एम. दिवाकर का मानना है कि बिहार में वामपंथी अपने एजेंडे से भटकने की सजा पा रहे हैं। बिहार में जबतक इनके एजेंडे पर भूमि सुधार, न्यूनतम मजदूरी और गरीबी निवारण जैसे मुद्दे मुखर रहे तबतक जनता भी इनके साथ रही लेकिन जब वामपंथियों ने इन सवालों को छोड़ दिया तो जनता ने भी उनका साथ छोड़ दिया। डॉ. दिवाकर के अनुसार बिहार में वामपंथियों का आधार मुख्य रूप से अनुसूचित जाति, जनजाति और कृषि श्रमिकों के बीच था। अगर वामपंथी इनके मसलों को लेकर आन्दोलन करते तो ये वर्ग जाति के आधार पर नहीं बंटते। निचली जातियों ने जब यह देखा कि वामपंथी उनके मसलों के नहीं उठा रहे हैं तो ये जातियां  जातिवादी दलों के साथ चली गई और वामपंथियों के गढ़ एक-एक कर ध्वस्त होते चले गये।

रविवार, 17 नवंबर 2013

मीडिया की साख और थ्योरी ऑफ एजेंडा सेटिंग

कमलेश
पिछले तीन दिनों से अखबार और टीवी न्यूज चैनल लगातार केवल और केवल सचिन राग आलाप रहे हैं। ऐसा लग रहा है मानो देश में पिछले तीन दिनों से दूसरा कोई मसला ही नहीं है। आप सचिन तेंदुलकर को पढ़िये, उसे देखिये और उसी के बारे में बात कीजिए। और कुछ मत सोचिए। थ्योरी ऑफ एजेंडा सेटिंग का इससे बेहतर शायद ही कोई उदाहरण हो सकता है। हाल के कुछ वर्षों में भारतीय मास मीडिया ने यह दिखा दिया है कि अब उसके लिए विश्वसनीयता अथवा साख के कोई मायने नहीं है। वह उन्हीं मसलों को देश का अहम मसला बनाने का प्रयास कर रहा है जो इस देश के शासक वर्ग के हित के लिए सही हैं। थ्योरी ऑफ एजेंडा सेटिंग का जितना विकराल रूप आज दिखाई पड़ रहा है उतना मीडिया के किसी भी कालखंड में इस देश के लोगों ने नहीं देखा होगा। मीडिया के सिद्धांत कहते हैं कि जब मीडिया द्वारा थोपे जा रहे एजेंडे में और आम आदमी के वास्तविक एजेंडे में फर्क शुरू होता है तो मीडिया के साख का संकट भी शुरू होता है। यह फर्क जितना बड़ा होगा मीडिया की साख भी उतनी ही संकट में पड़ेगी। इतिहास के किसी भी दौर में फर्क इतना बड़ा नहीं हुआ था।
लोकतंत्र और मीडिया
हम अक्सर मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहते हैं। ठीक बात है। यह लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ है। अब भारत का लोकतंत्र किनका लोकतंत्र है। यह लोकतंत्र किनके लिए प्राणवायु का काम करता है। यह वही लोकतंत्र है जहां बाथे और बथानी टोला के दलितों के हत्यारों को कोई सजा नहीं मिलती। इस देश के महज बीस फीसदी लोगों का है लोकतंत्र। तो जब लोकतंत्र इस देश के महज बीस फीसदी लोगों का लोकतंत्र है तो इसका चौथा स्तम्भ मीडिया भी महज बीस फीसदी लोगों का ही मीडिया है। जिस तरह इस देश के 80 फीसदी लोग इस लोकतंत्र में हाशिये पर हैं उसी तरह इस देश के 80 फीसदी लोग मीडिया की चिंता से बाहर है। यही कारण है कि चाहे वह छत्तीसगढ़ के आदिवासियों की लड़ाई हो या उड़ीसा के आदिवासियों का संघर्ष, इसे मुख्यधारा की मीडिया में कोई जगह नहीं मिल पाती है। लेकिन इसे स्थानीयता के वृत्त से बाहर निकाल कर जरा बड़े कैनवास पर देखने की जरूरत है। हम अक्सर इसके लिए इन मीडिया हाउसों में काम करने वाले पत्रकारों को जिम्मेवार ठहराते हैं। क्या किसी मीडिया हाउस में काम करने वाले पत्रकार उसका स्वरूप और उसका एजेंडा बदल सकते हैं? क्या पत्रकारों के बदलने से साख का संकट हल हो जाएगा?
मीडिया की आंतरिक संरचना
1988 में एडवर्ड एस हरमन और नॉम चॉम्सकी ने एक किताब लिखी थी- मैन्यूफैक्चरिंग कंसेंट। इस किताब में इन मीडिया विशेषज्ञों ने जिन बातों को सूत्र रूप में रखा वह आज भारत में अपने विराट रूप में दिखाई पड़ रहा है। इन विशेषज्ञों ने उसी समय कहा था कि दरअसल अभी के मीडिया में जो कुछ दिखाई पड़ रहा है वह किसी षड़यंत्र की वजह से नहीं है। मीडिया की अपनी आंतरिक बनावट ही ऐसी है जो उसे आम लोगों और मेहनतकश लोगों के खिलाफ खड़ा करती है। मीडिया की संरचना से ही उसका कंटेंट प्रभावित होता है। मीडिया की संरचना शासक वर्ग अथवा इलीट वर्ग के पक्ष में है इसलिए मीडिया का कंटेंट भी शासक वर्ग और इलीट वर्ग के पक्ष में होता है। मीडिया की सामाजिक भूमिका प्रभुत्वशाली समूहों के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक एजेंडे को न केवल स्थापित करना है बल्कि उसका बचाव भी करना है।
युद्ध और मीडिया का सच
कोई भी साम्राज्यवदी देश जब किसी कमजोर मुल्क पर हमले शुरू करता है तो भारत का शासक वर्ग तुरत उस साम्राज्यवादी मुल्क के पक्ष में उसी तरह खड़ा होता है जैसे उस साम्राज्यवादी देश का शासक वर्ग खड़ा होता है। चूंकि शासक वर्ग इस युद्ध के पक्ष में खड़ा होता है इसलिए मीडिया उस युद्ध के पक्ष में आम राय बनाने में जुट जाता है। पिछली सदी में इराक पर हुआ अमेरिकी हमला इसे बड़े दिलचस्प तरीके से दिखाता है।
पिछले दिनों वरिष्ठ लेखिका अरुंधति राय ने अपने एक साक्षात्कार में इस मसले को लेकर एक दिलचस्प घटना बताई थी। उनके अनुसार इराक युद्ध के पहले न्यूयार्क टाइम्स के रिपोर्टर ने लगातार खोजी खबर लिखी कि इराक के पास आणविक और रासायनिक हथियार हैं। इसी को आधार बनाकर अमेरिका ने इराक पर हमला कर दिया। जबकि इराक बार-बार कह रहा था कि उसके पास कोई आणविक हथियार नहीं है। फिर भी इराक को तहस-नहस कर दिया गया। हालांकि उस समय भी लोगों को इस बात की जानकारी थी कि इराक पर हमले की वजह उसके पास परमाणु हथियार का होना नहीं है। इराक को पूरी तरह बरबाद कर दिया गया। इस घटना के छह साल बाद न्यूयार्क टाइम्स ने भीतर में एक छोटी सी जगह में यह कहते हुए अपने पाठकों से माफॅी मांग ली कि हमने जो इराक के पास आणविक हथियार होने की खबर छापी थी वह दुर्भाग्य से गलत थी क्योंकि बाद में छानबीन से साबित हो गया है कि इराक के पास कोई हथियार मौजूद नहीं था। लेकिन मजेदार तो यह रहा कि अमेरिका के प्रसिद्ध डॉक्यूमेंटरी फिल्म मेकर माइकल मूर ने इस माफीनामे का उपयोग अपने किताब में करने की अनुमति न्यूयार्क टाइम्स से मांगी। लेकिन न्यूयार्क टाइम्स ने कापीराइट एक्ट के उल्लंघन का हवाला देते हुए इसकी अनुमति नहीं दी।
युद्ध और वीडियो गेम
यहां यह याद रखना जरूरी है कि भारत का इलेक्ट्रॉनिक मीडिया उस युद्ध को किस तरह दिखा रहा था। यह शायद दुनिया के इतिहास में पहली बार था कि मीडिया ने एक युद्ध को वीडियो गेम की तरह दिखाया। पूरी खबरें दिखाने का अंदाज ऐसा था कि आप इस युद्ध की विभिषिका से दुखी मत होइये, इसका मजा लीजिए। मीडिया की किताबें कहती हैं कि खबर के स्रोत जितने ज्यादा होते है मीडिया की साख उतनी ही ज्यादा होती है। आप याद कीजिए कि अमेरिका-इराक युद्ध की रिपोर्टिंग कर रहे भारतीय पत्रकारों के स्रोत क्या था- केवल अमेरिकी फौज और उनके द्वारा दी गई सूचनाएं। किसी भी चैनल ने हम भारतीयों को यह दिखाने की कोशिश नहीं की इस युद्ध को लेकर इराक के लोग किस तरह की नारकीय यंत्रणा झेल रहे हैं। आप जरा हाल में अफजल गुरु के प्रकरण को याद कीजिए। असहमति का स्वर मीडिया में दिखाई नहीं पड़ रहा था। अखबारों और न्यूज चैनलों में केवल उनकी बातें आ रही थीं जो भारत सरकार के कदम को देशभक्ति का सबसे बड़ा कदम मान रहे थे।
मीडिया कवरेज और पांच फिल्टर
नॉम चॉम्सकी कहते हैं कि मीडिया के कवरेज को पांच चीजें प्रभावित करती हैं-
स्वामित्व,
विज्ञापन,
असहमति,
स्रोत और
कम्युनिज्म विरोध।
कम्युनिजम विरोध को जरा और व्यापक फलक पर कहें तो दलित विरोध, पिछड़ा विरोध, आदिवासी विरोध और कुल मिलाकर मेहनतकश आवाम का विरोध।
मीडिया टाइजेशन
एक नया सिद्धांत चर्चा में है जिसे मीडिया टाइजेशन या मीडिया चालन कहते हैं। जब मीडिया की ताकत इतनी बढ़ जाए कि वह राजनीतिक सत्ता पर हावी हो जाए। मसलन नीरा राडिया प्रकरण से इसे अच्छी तरह समझा जा सकता है। जब कारपोरेट सेक्टर को सरकार को लेकर खेल करना था तो उसने नीरा राडिया की पीआर कंपनी के माध्यम से मीडिया की मदद ली। मीडिया इस काम को करने में सक्षम था क्योंकि वह राजनीतिक सत्ता पर अपना प्रभाव डाल रहा था। इसका मतलब यह भी मीडिया बेलगम और उद्दंड हो गया है तथा उस पर किसी का नियंत्रण नहीं रह गया हे।
साख मतलब हिस्सेदारी
और हम जब इस मीडिया में साख की बात करनते हैं तो इसका सीधा मतलब है कि हम इस मीडिया में आम आदमी के लिए हिस्सेदारी मांग रहे हें। वह मीडिया जिसमें इस देश के कारपोरेट सेक्टर के 60 हजार करोड़ रुपये से भी ज्यादा लगे हैं वह इस देश के आदमी को हिस्सा देगा? मीडिया कारपोरेट घराने द्वारा संचालित है जिसका मुख्य काम मुनाफा कमाना है। फिर इसमें वह उनलोगों को जगह क्यों दे जो उसके मुनाफा कमाने के सिलसिले में किसी भी काम के नहीं हैं। तो  इस हिस्से को पाने के लिए के लिए इस देश के लोगों को उसी तरह लड़ना होगा जिस तरह आप अपने बाकी के हक-हकूक के लिए लड़ते हैं। याद रखिये राजा को नंगा वह मीडिया नहीं कहेगा जो उसी राजा की मदद से अपने 60 हजार करोड़ के कारोबार को चला और बढ़ा रहा है। इस मीडिया में हिस्सेदारी के लिए या फिर इस मीडिया का चेहरा बदलने के लिए लड़ाई लड़नी होगी। इस लड़ाई को देश के सुदूर गांव-देहातों में लड़ी जा रही उस लड़ाई से जोड़ना होगा जिसका उद्देश्य इस देश की सूरत को बदलना है। यह काम इस देश का आम आदमी ही कर सकता है और वही करेगा।  

गुरुवार, 14 नवंबर 2013

कौन बचायेगा- हरिजन?

कमलेश
आप उन्हें संघी कह सकते हैं। उन्हें कोई एतराज भी नहीं था। कई बार वे खुद भी कहते थे। अपने कॉलम में भाजपा की चर्चा करते हुए वे जैसे अघाते थे उससे कई बार कोफ्त होती थी। लेकिन उनमें एक बात थी- वे वामपंथियों के लिखने-पढ़ने की क्षमता के जबर्दस्त कायल थे। कई बार अपने खास लोगों को से इस बात को शेयर भी किया करते थे। जब भी वे नौकरी देने की हालत में रहे उन्होंने वामपंथी विचारों के पत्रकारों को जमकर अवसर दिया। यह जानते हुए अवसर दिया कि सामने वाला उनके विचारों से इत्तेफाक नहीं रखता है।
जी, मैं बात दीनानाथ मिश्र की कर रहा हूं। जबसे उनके निधन की खबर मिली है उनका चेहरा आंखों के सामने तैर रहा है। और साथ में याद आ रही है उनसे पहली मुलाकात। तब मैं इंटर या शायद थर्ड इयर का विद्यार्थी हुआ करता था। बक्सर के एक छोटे से कॉलेज का छात्र। वामपंथी छात्र संगठन से जुड़ा हुआ। कालेज की कक्षा से ज्यादा सड़कों पर आन्दोलनों में दिखाई पड़ने वाला। लेकिन लिखने-पढ़ने का शौक था। लिहाजा अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं में लिखता रहता था। उस समय नवभारत टाइम्स का पटना से प्रकाशन शुरू हुआ था। दीनानाथ मिश्रजी उसके पहले संपादक थे। तब उस अखबार में स्वतंत्र पत्रकारों को लिखने का खूब स्पेस मिलता था। वहां काम करने वाले पत्रकारों की टीम भी जबर्दस्त थी। फिर कभी बिहार के किसी हिन्दी अखबार में इतने सशक्त पत्रकारों की टीम देखने को नहीं मिली। शायद यह भी दीनानाथजी का ही असर था।
इसी दौरान एक दिन वहां काम कर रहे नवेन्दु भैया (वरिष्ठ पत्रकार) का संदेश आया था- नवभारत टाइम्स को कुछ कैम्पस रिपोर्टर चाहिए। अप्लाई कर दो। मैंने बगैर कुछ सोचे केवल एक आवेदन भेज दिया था। अचानक एक दिन इंटरव्यू की चिठ्ठी भी आ गई। और मैं इंटरव्यू देने पटना नवभारत टाइम्स के दफ्तर पहुंचा था। अपने चैम्बर में दीनानाथजी बैठे थे। कभी चेहरे पर तो कभी बालों पर हाथ फेरते हुए। कुछ और लड़के आये थे। मैं यह जानकर चकित था कि उनमें से अधिकतर न केवल आन्दोलनकारी छात्र नेता थे बल्कि वामपंथियों की भी संख्या अच्छी-खासी थ्ी।
जब मैं कक्ष में पहुंचा तो दीनानाथजी ने बड़े स्नेह से पूछा था- आज ही आये हो? इसके बाद उन्होंने चाय मंगाई थी। फिर पूछा- कुछ लिखते-पढ़ते हो? मैंने अपने कुछ आलेख उन्हें देखने के लिए पकड़ा दिये थे। उनमें से अधिकतर उन लघु पत्रिकाओं में प्रकाशित आलेख थे जिन्हें वामपंथी ही नहीं नक्सली मिजाज का माना जाता था। करीब 15 मिनट तक उन आलेखों को गौर से देखने के बाद उन्होंने कहा था- पत्रकारिता में क्यों आना चाहते हो? राजनीति में क्यों नहीं चले जाते? मैंने कहा क्योंकि मैं कहीं और नहीं जा सकता। दीनानाथजी ने धीरे से हंस कर कहा- जो तुम लिखते पढ़ते हे उसे लेकर डर नहीं लगता? कोई मारेगा तो? मेरे लिए यह सवाल थोड़ा अप्रत्याशित था। मैंने कहा- कोई मारेगा तो बचायेंगे वे लोग जिनके लिए मैं लिखता-पढ़ता हूं। दीनानाथजी थोड़ा मुस्कुराये थे। फिर पूछा था- कौन बचायेगा- हरिजन? मैं समझ गया कि दीनानाथजी का इशारा किस तरफ है? मैंने कहा था- जनता अपने-आप में सुरक्षा कवच होती है सर। इस पर खूब जोर से हंसे थे दीनानाथजी। फिर कहा था- अपना यह जज्बा बनाकर रखना। आने वाले दिनों में इस जज्बे को लेकर पत्रकारिता करने वाले कम लोग मिलेंगे। इसके बाद उन्होंने पास बैठे गुंजनजी से कहा था- इस लड़के की चिठ्ठी बनवा दीजिए।
इसके महीनों बाद अचानक नवभारत टाइम्स के दफ्तर में सामना हो गया था उनसे। उन्हें मुझे पहचानने में मुश्किल से पांच मिनट लगे होंगे। उन्होंने हंसकर कहा- क्या पटना आ गये? मैंने कहा- नहीं सर, बक्सर में ही हूं। उन्होंने प्यार से कहा था- कोई दिक्कत हो तो बताने में संकोच मत करना।
अभी जब उनके निधन की खबर सुनी तो लगा कि भ्राविष्य को कितनी गहरी दृष्टि से देख रहे थे दीनानाथजी।  उनके आलेखों को लेकर, उनके कॉलम को लेकर कई बार हम कहते थे- ऐसे भाजपा का प्रचार नहीं करना नहीं चाहिए उनको। आखिर एक पत्रकार की मर्यादा का तो उन्हें निर्वहन करना चाहिए। लेकिन अब लगता है कि आदमी चाहे किसी भी विचार के साथ हो, उसके पक्ष में उसे मजबूती से खड़ा होना ही चाहिए।    

शनिवार, 9 नवंबर 2013

जनता का लड़ाकू चेहरा थे चंदेश्वरी दा

 चंदेश्वरी प्रसाद सिंह, चंदेश्वरी दा, सीपी सिंह। एटक के अध्यक्ष, भाकपा की राष्ट्रीय परिषद के सदस्य और सीपीआई की सेना जनसेवा दल के सेनानायक। कई नाम थे उनके लेकिन चेहरा एक ही था। हमेशा जनता की लड़ाई में डटे रहने वाला। छठ का उल्लास अभी पूरी तरह खत्म भी नहीं हुआ था कि उनके निधन की खबर आई। रहने वाले वे भले बेगूसराय के थे लेकिन उन्हें जानने वाले पूरे बिहार में हैं।
राजनीति विज्ञान कहता है कि जनता जब सबसे तीखे संकट का सामना करती है तभी उसके सबसे जुझारू नेता सामने आते हैं। वे आते तो बिजली की चमक की तरह हैं लेकिन जनता के बीच रहते बिल्कुल उसी तरह हैं जैसे पानी में मछली रहती है। चंदेश्वरी दा ऐसे ही नेता थे। सीपीआई में आने के पहले नक्सलवादी आन्दोलन का उभार भी वे देख चुके थे। वे तो उच्च अध्ययन के लिए मास्को जाने की तैयारी में थे। इसके लिए उनका चयन भी हो चुका था। मास्को जाने के पहले वे कुछ जरूरी कागजात लेने भागलपुर से अपने गांव बीहट आये थे। तब बेगूसराय के लोग अपराधियों के आतंक के साये में जी रहे थे। गांव आते ही उनका भी सामना अपराधियों के साथ हुआ। जमकर लड़ाई चली। इसी क्रम में एक हत्या हो गई। इस हत्याकांड के अभियुक्त बनकर उन्हें सीपीआई के नेताओं के साथ जेल जाना पड़ा। और जब वे जेल से बाहर आये तो वे जान चुके थे उनके लिए विश्वविद्यालय का रास्ता मास्को से होकर नहीं किसानों के खेत-खलिहान और मजदूरों की फैक्ट्रियों से होकर गुजरता है।
इसके बाद तो चंदेश्वरीजी बिहार में भाकपा के हर कार्यक्रम के लिए जैसे जरूरी नाम बन गये थे। 65 साल के चंदेश्वरी दा भाकपा के युवा कार्यकर्ताओं के लिए प्रेरणास्रोत थे। नौजवान कार्यकर्ताओं का कहना था कि चंदेश्वरी दा जब उनके साथ होते हैं तो ऐसा लगता है मानो उनके इर्द-गिर्द कोई सुरक्षा घेरा बना हुआ हो।
इसकी बड़ी कीमत उन्हें चुकानी पड़ी। उनके भाई बिन्देश्वरी सिंह की हत्या हुई। उनके कई साथी उनसे बिछड़े और खुद उन्हें एक हत्याकांड में उम्र कैद की सजा हुई। हालांकि इस सजा के खिलाफ वे सुप्रीम कोर्ट गये और इस सजा पर उन्हें स्टे मिला। वे एक बार जिला पार्षद का चुनाव भी जीते जिसे बाद में रद्द किया गया। चंदेश्वरी दा केवल राजनीतिक कार्यकर्ता ही नहीं बल्कि एक अच्छे लेखक भी थे। उनकी तीन किताबें शहीदों के रास्ते, लाल सितारा और जेल का खेल लोगों के बीच चर्चा का विषय बन चुकी हैं। एक ऐसे समय में जब राजनीति और विश्वसनीयता के बीच की खाई बढ़ती जा रही है, चंदेश्वरी दा जैसे लोगों का जाना बड़ा सदमा देता है।

रविवार, 9 जून 2013

जीवित हैं साथी हंसराज के सपने


कमलेश
हंसराज नहीं रहे। एक साल पहले उनका निधन हो गया- और यह खबर मुझे तब मिली जब मैंने बिहार नौजवान सभा के एक पुराने कार्यकर्ता कामेश्वर भाई को फोन किया। मैं सबका हाल-चाल ले रहा था। फलां कैसे हैं और फलां क्या कर रहे हैं? जैसे ही मैंने हंसराज के बारे में पूछा वे चौंक गये- तुम्हें नहीं पता? वे तो पिछले साल ही चल बसे। अचानक। चुपचाप अपने दुखों के साथ। लड़ाई की स्मृतियों को अपने सीने में संजोए। किसी को बगैर कुछ बताये। मैं फोन पकड़े सन्नाटे में डूबा रहा। थोड़ी देर बाद मैंने शिकायत की- किसी ने मुझे बताया भी नहीं। कामेश्वर भाई ने बताया कि कुछ पुराने साथियों ने बक्सर में छोटी सी सभा करके श्रद्धांजलि दे दी। दूर बैठे साथियों को सूचना कौन देता?
साथी हंसराज। हंसराज मल्लाह। हंसराज केवट। गायक हंसराज। और प्रशासन की नजर में नक्सली हंसराज। दोस्तों की भाषा में राका तो भोजपुर-बक्सर  के महानतम किसान आन्दोलन के समर्थन में उतरे छात्र-नौजवानों के लिए काका। एक पांव जेल में तो दूसरा पांव नुक्कड़ों पर नाटकों में। उम्र साठ साल के ऊपर लेकिन जब तान खींचकर गाते- जाग बाबू जाग हमरा दूध के दुलार हो...... तो पूरा माहौल उनके ठेठ गंवई आवाज की जादू में डूब जाता। दिन भर या तो गंगा नदी में अपने नाव पर रहते या हमलोगों के साथ घुमक्कड़ी करते और शाम में देर रात तक नाटक का रिहर्सल और इसके बाद ढ़ोलक की थाप पर उनके जनगीतों का आनन्द।
 दिसम्बर महीने की एक  सर्द शाम में उनसे पहली बार मिला था मैं। तब मैं इंटर का छात्र हुआ करता था और एक संस्कृतिकर्मी। कोहरे में डूबा बक्सर का कोईरपुरवा मोहल्ला और उसके पीछे का हरिजन टोला। नागरिक अधिकार सुरक्षा समिति की बैठक खत्म हुई थी और मैं ठंड से लगभग ठिठुर रहा था। जो चादर मैंने ओढ़ रखी थी वह उस कड़ाके की ठंड के आगे अपने हाथ खड़े कर चुकी थी। कुहासा पानी की बूंद बनकर टपक रहा था। अचानक एक उम्रदराज व्यक्ति ने मेरे कंधे पर हाथ रखा- अरे नन्हका, चल ना नीम के नीचे लकड़ी जरवले बानी......। नन्हक हमारे यहां प्यार से छोटे बच्चे को कहा जाता है। मैंने उनका चेहरा देखा- हल्की सफेद दाढ़ी, खिचड़ी बाल, लुंगी और बदन पर केवल एक चादर। पांव में टायर वाली चप्पल। पेड़ के नीचे जली अलाव और हंसराज ने गोरख पांडे का वह मशहूर गीत गाना शुरू किया- समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई...। प्रो. विजयानंद तिवारी ने परिचय कराया- हंसराज हैं लेकिन रहबर नहीं मल्लाह।
हंसराज पढे-लिखे नहीं थे। बस अक्षर ज्ञान भर था। लेकिन जब समाज की व्याख्या करते तो सामने वाला चकित रह जाता। अदिम समाज से अब तक की व्याख्या बिलकुल एक आम आदमी के अनुभवों में शामिल घटनाओं के साथ और आम आदमी की भाषा में। पहले सीपीआई में थे और जब पार्टी टूटी तो सीपीएम के साथ आ गये। सीपीएम के टूटने के बाद सीपीआई एमएल के साथ। कभी कामरेड मोती (बिहार और उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती जिलों में काम करने वाले कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी नेता) को गंगा पार कराने के लिए शाम से ही नाव तैयार करते। कामरेड मोती  के साथ ही उन्होंने मार्क्सवाद के कई पाठ सीखे। उस दौर की बातें वे हम नौजवानों को बड़ी गर्व से सुनाते थे। वे उस दौर में गाया जाने वाला एक गीत भी सुनाते थे- गरीब लाल झंडा गौर से पहचानो...।  जेल जाना तो जैसे उनकी रूटीन में शामिल था। एक बार वे जेल गये तो मैं उनसे मिलने पहुंचा। तब उन्होंने कवि विजेन्द्र अनिल से परिचय कराया था। वे भी उनसे मिलने पहुंचे थे।
साल तो ठीक-ठीक याद नहीं लेकिन ये याद है कि तब बक्सर में गंगा नदी को ठेकेदारों से मुक्त करने का आन्दोलन चल रहा था। नाविकों ने तब बड़ा बहादुराना संघर्ष छेड़ा था और पुलिस व ठेकेदार की नाक में दम कर दिया था। पुलिस और ठेकेदार के गुंडे नाविकों पर हमले कर रहे थे। हंसराजजी के कारण बक्सर से हम छात्रों का एक समूह नाविकों के बीच रहता था। उन्हीं के बीच खाना, रहना और बक्सर शहर में नाटक करके व गीत गाकर उनके लिए समर्थन जुटाना। एक बार शाम के समय गंगा नदी के किनारे हमलोग अलाव के इर्द-गिर्द बैठे हुए थे। किसी गंभीर विषय पर बहस चल रही थी। हंसराजजी की फिक्र यह थी कि आग नहीं बुझे वरना इन लड़कों को ठंड लगेगी। वे लकड़ी ला-लाकर आग में डाल रहे थे । लकड़ियां नदी के किनारे की थी इसलिए हल्की भींगी थी।  इसके कारण वे धुंआ कर रही थी। धुंआ से थोड़ी परेशानी हो रही थी। मैं उन्हें बार-बार लकड़ियां डालने से  मना कर रहा था। मेरे मना करने के बावजूद उनके द्वारा लकड़ियां डाले जाने पर पर मेरे भीतर का बौद्धिक अहंकार जागा और मैं उनपर बरस पड़ा। वे पहले तो चुपचाप सुनते रहे फिर बोले- इ लड़ाई केकर? हमार नू? फिर तू के? मुझे लगा किसी ने मुझे थप्पड़ मार दिया हो। मैंने तुरंत उनसे माफी मांगी। एक बार समकालीन जनमत में एक लेख लिखने के कारण सीआईडी के अधिकारी मेरे घर पहुंच गये। वो लगभग रेड ही थी। मेरे घर के लोग परेशान। मुझे घर पर खूब डांट पड़ी थी तब। मैं परेशान हाल जन ज्वार पत्रिका के कार्यालय में पहुंचा था और सबको यह बात बताई। हंसराजजी हंसे थे। बोले- पहिलका बेर अइसही लागेला नन्हक। फेर आदत पड़ जाला। फिर कुछ दिनों के बाद मैं पटना आ गया। यहां पढ़ाई खत्म हुई और अखबार में काम करने लगा। कुछ दिनों के बाद जब बक्सर गया तो एक धरना पर उनसे मुलाकात हुई। उसी तरह नौजवानों के साथ। उन्होंने कहा- नौकरी करताड़ हो, लइकन के कुछ खियाव। और फिर बड़े अधिकार से मेरी जेब में हाथ डालकर पैसे निकाल लिये।
इधर दो साल पहले लम्बे समय के बाद उनसे मुलाकात हुई। वे घबराये थे और उनके साथ कामेश्वर भाई भी थे। हंसराजजी ने कहा था कि कुछ लोगों ने उनके लड़के को उठा लिया है और शायद उसकी हत्या कर डाली है लेकिन बक्सर की पुलिस कुछ नहीं कर रही है। कामेश्वर भाई के साथ वे मानवाधिकार आयोग के कार्यालय भी गये थे। वे चाहते थे कि इसकी खबर छपे और पुलिस कुछ कार्रवाई करे। फिर रुंआसे स्वर में कहा था- जब संगठन कमजोर होखेला त दुश्मन बरियार हो जाला। संगठन के कमजोर ना होखे के चाही।
कम्युनिस्ट पार्टियों की आपसी फूट से वे अक्सर परेशान रहते थे। उनक मानना था कि तीनों कम्युनिस्ट पार्टियां अगर जनसंघर्षों के स्तर पर भी एकजुट हो जाएं तो हालात काफी बदल सकते हैं। कम्युनिस्ट पार्टी चाहे कोई भी हो अगर उसका कोई कार्यकर्ता मुश्किल में पड़ता तो वे परेशान हो जाते थे। उनसे जुड़ी अनगिनत यादें हैं- उनकी खुशी की, उनके गुस्से की और उनके प्यार की। बराबर संगठन को मजबूत करने का सपना देखने वाले साथी हंसराज तो अब बस यादों में ही आयेंगे। लेकिन संगठन को मजबूत बनाने का उनका सपना जीवित है। न केवल बक्सर और बिहार बल्कि पूरे देश में।