चंदेश्वरी प्रसाद सिंह, चंदेश्वरी दा, सीपी सिंह। एटक के अध्यक्ष, भाकपा की राष्ट्रीय परिषद के सदस्य और सीपीआई की सेना जनसेवा दल के सेनानायक। कई नाम थे उनके लेकिन चेहरा एक ही था। हमेशा जनता की लड़ाई में डटे रहने वाला। छठ का उल्लास अभी पूरी तरह खत्म भी नहीं हुआ था कि उनके निधन की खबर आई। रहने वाले वे भले बेगूसराय के थे लेकिन उन्हें जानने वाले पूरे बिहार में हैं।
राजनीति विज्ञान कहता है कि जनता जब सबसे तीखे संकट का सामना करती है तभी उसके सबसे जुझारू नेता सामने आते हैं। वे आते तो बिजली की चमक की तरह हैं लेकिन जनता के बीच रहते बिल्कुल उसी तरह हैं जैसे पानी में मछली रहती है। चंदेश्वरी दा ऐसे ही नेता थे। सीपीआई में आने के पहले नक्सलवादी आन्दोलन का उभार भी वे देख चुके थे। वे तो उच्च अध्ययन के लिए मास्को जाने की तैयारी में थे। इसके लिए उनका चयन भी हो चुका था। मास्को जाने के पहले वे कुछ जरूरी कागजात लेने भागलपुर से अपने गांव बीहट आये थे। तब बेगूसराय के लोग अपराधियों के आतंक के साये में जी रहे थे। गांव आते ही उनका भी सामना अपराधियों के साथ हुआ। जमकर लड़ाई चली। इसी क्रम में एक हत्या हो गई। इस हत्याकांड के अभियुक्त बनकर उन्हें सीपीआई के नेताओं के साथ जेल जाना पड़ा। और जब वे जेल से बाहर आये तो वे जान चुके थे उनके लिए विश्वविद्यालय का रास्ता मास्को से होकर नहीं किसानों के खेत-खलिहान और मजदूरों की फैक्ट्रियों से होकर गुजरता है।
इसके बाद तो चंदेश्वरीजी बिहार में भाकपा के हर कार्यक्रम के लिए जैसे जरूरी नाम बन गये थे। 65 साल के चंदेश्वरी दा भाकपा के युवा कार्यकर्ताओं के लिए प्रेरणास्रोत थे। नौजवान कार्यकर्ताओं का कहना था कि चंदेश्वरी दा जब उनके साथ होते हैं तो ऐसा लगता है मानो उनके इर्द-गिर्द कोई सुरक्षा घेरा बना हुआ हो।
इसकी बड़ी कीमत उन्हें चुकानी पड़ी। उनके भाई बिन्देश्वरी सिंह की हत्या हुई। उनके कई साथी उनसे बिछड़े और खुद उन्हें एक हत्याकांड में उम्र कैद की सजा हुई। हालांकि इस सजा के खिलाफ वे सुप्रीम कोर्ट गये और इस सजा पर उन्हें स्टे मिला। वे एक बार जिला पार्षद का चुनाव भी जीते जिसे बाद में रद्द किया गया। चंदेश्वरी दा केवल राजनीतिक कार्यकर्ता ही नहीं बल्कि एक अच्छे लेखक भी थे। उनकी तीन किताबें शहीदों के रास्ते, लाल सितारा और जेल का खेल लोगों के बीच चर्चा का विषय बन चुकी हैं। एक ऐसे समय में जब राजनीति और विश्वसनीयता के बीच की खाई बढ़ती जा रही है, चंदेश्वरी दा जैसे लोगों का जाना बड़ा सदमा देता है।
राजनीति विज्ञान कहता है कि जनता जब सबसे तीखे संकट का सामना करती है तभी उसके सबसे जुझारू नेता सामने आते हैं। वे आते तो बिजली की चमक की तरह हैं लेकिन जनता के बीच रहते बिल्कुल उसी तरह हैं जैसे पानी में मछली रहती है। चंदेश्वरी दा ऐसे ही नेता थे। सीपीआई में आने के पहले नक्सलवादी आन्दोलन का उभार भी वे देख चुके थे। वे तो उच्च अध्ययन के लिए मास्को जाने की तैयारी में थे। इसके लिए उनका चयन भी हो चुका था। मास्को जाने के पहले वे कुछ जरूरी कागजात लेने भागलपुर से अपने गांव बीहट आये थे। तब बेगूसराय के लोग अपराधियों के आतंक के साये में जी रहे थे। गांव आते ही उनका भी सामना अपराधियों के साथ हुआ। जमकर लड़ाई चली। इसी क्रम में एक हत्या हो गई। इस हत्याकांड के अभियुक्त बनकर उन्हें सीपीआई के नेताओं के साथ जेल जाना पड़ा। और जब वे जेल से बाहर आये तो वे जान चुके थे उनके लिए विश्वविद्यालय का रास्ता मास्को से होकर नहीं किसानों के खेत-खलिहान और मजदूरों की फैक्ट्रियों से होकर गुजरता है।
इसके बाद तो चंदेश्वरीजी बिहार में भाकपा के हर कार्यक्रम के लिए जैसे जरूरी नाम बन गये थे। 65 साल के चंदेश्वरी दा भाकपा के युवा कार्यकर्ताओं के लिए प्रेरणास्रोत थे। नौजवान कार्यकर्ताओं का कहना था कि चंदेश्वरी दा जब उनके साथ होते हैं तो ऐसा लगता है मानो उनके इर्द-गिर्द कोई सुरक्षा घेरा बना हुआ हो।
इसकी बड़ी कीमत उन्हें चुकानी पड़ी। उनके भाई बिन्देश्वरी सिंह की हत्या हुई। उनके कई साथी उनसे बिछड़े और खुद उन्हें एक हत्याकांड में उम्र कैद की सजा हुई। हालांकि इस सजा के खिलाफ वे सुप्रीम कोर्ट गये और इस सजा पर उन्हें स्टे मिला। वे एक बार जिला पार्षद का चुनाव भी जीते जिसे बाद में रद्द किया गया। चंदेश्वरी दा केवल राजनीतिक कार्यकर्ता ही नहीं बल्कि एक अच्छे लेखक भी थे। उनकी तीन किताबें शहीदों के रास्ते, लाल सितारा और जेल का खेल लोगों के बीच चर्चा का विषय बन चुकी हैं। एक ऐसे समय में जब राजनीति और विश्वसनीयता के बीच की खाई बढ़ती जा रही है, चंदेश्वरी दा जैसे लोगों का जाना बड़ा सदमा देता है।
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