आलोक कुमार
अस्पताल की बेड की जगह बालू के ढेर पर बनी अस्थाई झोपड़ी. झोपड़ी भी अनोखी. फूस और सरकंडे की जगह प्लास्टिक की बोरियों की छत और मच्छरदानी की दीवार. नतीजा हवा-पानी तो दूर ओस की बूँदें भी नहीं रूक पाती. इसके बावजूद एक नहीं दर्जन भर से अधिक कैंसर पीड़ित मरीज और उनके परिजन इस स्थिति में रहने को मजबूर हैं. लिहाजा कई मरीजों के साथ आये परिजनों के भी मरीज बनने की आशंका बनी रहती है.
यह बानगी गांव-गिरांव के किसी पी एच सी की नहीं बल्कि राजधानी के साथ-साथ देश स्तर पर चर्चित हो चुके महावीर कैंसर हॉस्पिटल सह शोध संस्थान की है. जब अस्पताल में गरीब मरीजों की सुविधा की पड़ताल करने की कोशिश की गयी तो यह तल्ख़ हकीकत सामने आयी. अस्पताल के भीतरी परिसर में केन्टीन के बाहर खाली पड़े स्थान पर निर्माण के लिए बालू और छड़ गिराया हुआ है. बालू के ढेर पर छड़ के सहारे प्लास्टिक के बोरों से एक दर्जन से अधिक लोग झोपड़े बना कर रह रहे हैं. वहीँ खाना बना रहे हैं और वहीँ खा भी रहे हैं. गोपालगंज के रेवती थकाम गांव से आये हैं सत्यदेव साह. इन्हें छः महीने पहले ही बीमारी का पता चला है. अभी सेकाई कराने आये हैं. साथ में परिजन हैं. कहने लगे २०-२५ दिन हो गए बाबू इसी तरह से रहते हुए. सेकाई की फीस देने में ही सारे पैसे खर्च हो गए. अन्दर में बगैर पैसे के कोई रहने नहीं देता.
गोपालगंज के ही बैकुंठपुर के श्यामपुर गांव से आयी हैं रिम्पू देवी अपनी माँ का इलाज कराने. लेकिन ओस में रहने से इनकी खुद की तबीयत ख़राब हो गयी है. सर्दी-बुखार हो गया है. इसके बावजूद मां को अकेले नहीं छोड़ सकती. सो खुले में ही रहने को मजबूर हैं. भागलपुर के महेंद्र महतो की मानें तो वे एक महीने का इलाज कराने के लिए छः हजार रूपये जमा कर चुके हैं. लेकिन रहने के लिए अस्पताल में कमरा नहीं मिलता. गार्ड कहता है कि यह अस्पताल है डेरा नहीं. जाओ कहीं बाहर में डेरा खोज कर रहो. बाबू हम गरीब लोग हैं. भैंस बेच कर इलाज कराने आये हैं. ऐसे में रहने पार सारा पैसा खर्च कर देंगे तो इलाज कैसे करायेंगे. सरकार को चाहिए कि कैंसर के मरीजों को रेल में फ्री पास बना दिया जाये ताकि इलाज कराने पटना आने में कोई परेशानी न हो. पुर्णिया के अब्दुल हन्नान अपने बेटे मो. जहरूल का इलाज कराने आये हैं. उन्होंने बताया कि वे एक एक महीने से इसी तरह रह रहे हैं. सबसे ज्यादा परेशानी खाना बनाने और खाने के वक्त होती है. खाने के दौरान बालू मुंह में चला जाता है. लेकिन क्या करें, हमलोगों के लिए और कोई चारा नहीं है. भागलपुर के रोहित ने बताया कि बीस दिनों से वह इसी तरह रह रहा है अपने पापा शम्भू यादव के साथ. उनकी सेकाई चल रही है.
उधर महावीर कैंसर हॉस्पिटल सह शोध संस्थान के धर्मशाला की कहानी हरी अनंत हरी कथा अनंता वाली है. एक बानगी देखिये. कैम्पस के अन्दर दाखिल होते ही चार-पांच लोग केयर टेकर का इंतजार करते मिले. जब केयर टेकर का दरवाजा खटखटाया गया तो रामचंद्र नामक एक आदमी बाहर आया. आते ही झल्लाते हुए कहा- का है जी. जवाब दिया गया कि कमरा चाहिए. जवाब मिला- दो दिन के बाद भेंट कीजियेगा. ५५ रुपया किराया लगेगा.
आलोक कुमार बिहार के युवा पत्रकार हैं. आम लोगों की पीड़ा से जुड़ना और उनके बारे में लिखना इनकी विशेषता है, आलोक से उनके फोन नम्बर 9431488489 पर संपर्क किया जा सकता है.