गुरुवार, 19 अप्रैल 2012

केकर थाना, कचहरी केकर

केकर थाना, कचहरी केकर
कमलेश
बिहार में एक पुरानी कहावत है- बारह साल के बाद एक युग बदलता है. और वो सारी चीजें भी बदल जाती हैं जो पहले से चली आ रही थी. लेकिन बिहार का एक छोटा सा गांव  बथानी टोला  जैसे इस कहावत पर हंस रहा है और बदलाव की बात करने वालों को आइना दिखा रहा है.. यहाँ तो सोलह साल के बाद भी कुछ नहीं बदला. न तो मरने वालों की किस्मत और न ही मारने  वालों का राज-पाट. सब कुछ वही है-वही राजा-महाराजाओं के ज़माने वाला. मरने वाले आज भी मर रहे हैं और मारने वाले कल से ज्यादा नृशंस तरीके से  मार रहे हैं. पुलिस, कोर्ट और कचहरी सब मारने वालों के पक्ष में खड़े दिखाई पड़ रहे हैं. यही नहीं दिखाने के  लिए एक दूसरे पर जिम्मेदारियों की फेंका फेंकी का खेल भी चल रहा है. बथानी टोला के मामले में लगभग सोलह साल के बाद आये हाई कोर्ट के फैसले को देखने के बाद वर्षों पहले सुना हुआ एक भोजपुरी गीत  याद आ रहा है- पुलिस केकर, मलेटरी केकर, केकर थाना, कचहरी केकर. हम भयनी कौड़ी के तीन पटवारी केकरा नामे जमीन;ये गाना  बथानी टोला  के लोग भी खूब गाते थे लेकिन इस गाना का अर्थ शायद अब उन्हें मालूम चल रहा होगा. 
देश भर में न सही लेकिन बिहार में तो इस खबर  पर बात चल ही रही है. बथानी टोला में सोलह साल पहले हुए एक नरसंहार के सारे तेईस अभियुक्तों को  हाई कोर्ट ने बरी कर दिया है. उस नरसंहार में 21 लोग मारे गए थे. निचली अदालत ने इन बरी हुए तेईस लोगों में से तीन को फांसी और बीस को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी.  हाई कोर्ट ने उसके फैसले को ख़ारिज कर दिया.  हाई कोर्ट ने वैसे यह जरूर कहा कि अभियुक्तों को बचाने के लिए जाँच कार्य में लापरवाही बरती गयी है.  हाई कोर्ट  ने भले अब कहा हो लेकिन इस नरसंहार कांड के बाद से ही  पुलिस के रवैये से साफ जाहिर हो रहा था कि इस पूरे मामले में उसकी सहानुभूति किसके साथ थी.राज्य के पुलिस मुखिया अब  हाई कोर्ट  के इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने की बात कह रहे हैं लेकिन यह नहीं बताते कि जिन बेहया और बदचलन पुलिस वालों के कारण बथानी टोला  के लोगों के हाथ से इंसाफ निकाल गया उन  पुलिस वालों  को क्या सजा दी जाएगी. दिलचस्प तो यह भी है कि  बथानी टोला  को लेकर केंद्रीय गृह मंत्री चिदंबरम  कह रहे हैं कि इस मामले में आन्दोलन  होना चाहिए.  बथानी टोला  के लोगों को गृह मंत्री की इस बात का मतलब समझ में नहीं आ रहा है.
 भोजपुर जिले के सहार प्रखंड  का एक गांव है बथानी टोला. एक जमाने में बिहार में चल रहे भूमि संघर्षों की आंच में तपता और खौलता गांव. एक तरफ गांव के भूमिहीन खेत मजदूर और दलित थे तो दूसरी ओर भूमिपति. दलितों के पक्ष में खड़ी  थी भाकपा माले तो भूमिपतियों के लिए हरवा हथियार से लैस थी खूंखार  रणवीर सेना.  दोनों के बीच  पिछले कई वर्षों से लगातार लड़ाई जारी थी.  11 जुलाई 1996 को  बथानी टोला में उतरा था मनहूस दिन. दोपहर के करीब एक बजे पचास-साठ लोग गांव में घुस आये थे. सभी हथियारों से लैस थे. रणवीर सेना के इस जत्थे  में किसी के हाथ में बन्दुक थी तो किसी के हाथ में तलवार और किसी के हाथ में भाला. गांव में हुआ हल्ला-रणवीर सेना वाला आ गइलन स. इधर हमलावर गोलियां बरसाने लगे. लोगों को जिधर जगह मिली उधर भागे. गांव के मारवाड़ी चौधरी के घर में छुपने के लिए लोग भागे. हमलावरों ने  मारवाड़ी चौधरी के घर के साथ-साथ झोपड़ियों  में आग लगा दी. कुछ लोग जल कर मरे तो कुछ लोगों को गोली मार दी गयी. कई लोग तो तलवार से काट डाले गए. कुल 21 लोग मारे गए थे. मरने वालों में तीन साल का अमीर सुभानी था तो चालीस साल की जेबू निशा भी थी. हत्यारों ने छोटे बच्चों के साथ-साथ गर्भवती महिलाओं को भी नहीं छोड़ा था. गांव के ही एक नईमुद्दीन के घर के पांच सदस्य मार डाले गए थे. गांव में बना शहीद स्मारक आज भी मारे गए लोगों की याद दिलाता है. अब ऐसा लग रहा है जैसे इस सच को ही झूठ बनाने की कवायद चल रही है.
         बथानी टोला के लोग अब चुप हैं. शांति से सब कुछ देख रहे हैं. उस नरसंहार को  याद करना नहीं चाहते, ऐसा भी नहीं है. वे आज भी उस स्मारक को देखते हैं और डर जाते हैं. उनको लगता है कि कोई फिर आकर उन्हें तबाह कर देगा और अदालत से भी बेदाग छुट जायेगा. कल भी ऐसा ही होता था और आज भी ऐसा ही हो रहा है. दरअसल वे जुबान से कुछ नहीं बोलते लेकिन उनकी ऑंखें सब कुछ कह रही हैं. बथानी टोला से एक सवाल उठ रहा है- अगर निचली अदालत से सजा पाने वाले सभी लोग निर्दोष थे तो उस नरसंहार को अंजाम देने वाले कौन थे. बथानी टोला की जमीन पर गिरे उन 21 लोगो का खून किसके माथे पर है. अगर गरीब लोग मारे गए थे तो मारने वाले भी जरूर हैं. उन्हें सजा कब मिलेगी. एक बार फिर उन्हें वह गीत याद आ रहा है -पुलिस केकर, मलेटरी केकर, केकर थाना, कचहरी केकर. हम भयनी कौड़ी के तीन पटवारी केकरा नामे जमीन;

गुरुवार, 5 अप्रैल 2012

गरीबों से छीनी जा रही बिजली

 कमलेश
साभार- गोपाल
रामध्यान महतो कपड़े की एक दुकान पर काम करते हैं. पटना के खाजपुरा मोहल्ले में वे एक किराये के घर में रहते हैं. उन्होंने पैसे बचाकर ऑफ सीजन में एक कूलर ख़रीदा था. अच्छी खासी छुट मिल गयी थी. सोचा था कि कूलर रहेगा तो इस बार की गर्मी में बच्चों को पढने-लिखने में परेशानी नहीं होगी. पिछली गर्मी में बच्चों की हालत देख कर उनका कलेजा मुंह को आ गया था और तभी से उन्होंने पैसे बचाने शुरू कर दिया था. साढ़े चार हजार रुपये का कूलर आया तो घर में जैसे उत्सव का माहौल बन गया था. लेकिन दुर्भाग्य आसानी से पीछा कहाँ छोड़ता है. अब हालत यह है कि रामध्यान जी को कूलर का स्विच छूते हुए डर लगता है. उनकी पत्नी और बच्चे जब भी कूलर को देखते हैं तो राज्य  सरकार को खूब सरापते हैं. उन्हें डर है कि वे कूलर चलाएंगे तो बिजली का बिल इतना आ जायेगा कि पूरे महीने का बजट ही गड़बड़ा जायेगा.

रामध्यानजी कहते हैं कि अगर एक हजार रुपया बिजली का बिल भरेंगे तो खायेंगे क्या.
 दरअसल बिहार में बिजली का बिल इतना आ रहा है कि धीरे-धीरे बिजली आम आदमी की पहुँच से बाहर होती जा रही  है. बिहार के ग्रामीण इलाकों में एक तो बिजली रहती नहीं है और जब रहती है तो उसको जलाना काफी महंगा होता है. लिहाजा अब गरीब-गुरबे ज्यादातर बिजली चुरा कर ही जला रहे हैं.

अभी बिहार में यदि आपके घर में बिजली का बिल एक महीने में तीन सौ यूनिट से ज्यादा आता है तो हो सकता है कि आपको प्रति यूनिट चार रूपये का बिल भरना पड़े. एक तो बिजली बिल की दर बढ़ा दी गयी और ऊपर से प्रति यूनिट  फ्युएल सरचार्ज वसूला जाता है. इस सरचार्ज का कोई फिक्स रेट नहीं है. लोग पिछले एक साल से  फ्युएल सरचार्ज दे रहे हैं लेकिन आजतक उन्हें इसका हिसाब-किताब समझ में नहीं आया है,. कभी 69 पैसा तो कभी 60 पैसा प्रति यूनिट फ्युएल सरचार्ज वसूला जाता है. एक बार तो एक रुपया 18 पैसा फ्युएल सरचार्ज लिया गया था. मतलब यदि आप पटना जैसे शहर में दो कमरों के घर में रहते हैं तो आपका बिजली बिल एक हजार रुपया से कभी काम नहीं आएगा. पहले यह 6 -7  सौ रुपया के आस पास रहता था.

जब बिहार राज्य बिजली बोर्ड ने फ्युएल सरचार्जके नाम पर अनाप-शनाप पैसा लेना शुरू किया तो कुछ विपक्षी दलों ने इसका विरोध किया. इस पर सरकार के बिजली मंत्री का कहना था कि विपक्षी दलों के लोग पढ़ते लिखते नहीं हैं. इन्हें पता ही नहीं है कि बिजली के बिल में बढ़ोतरी का काम सरकार नहीं करती है बल्कि इसके लिए एक नियामक योग बना हुआ है. जिस मंत्री ने यह तर्क दिया वह बराबर दूसरों के पढने-लिखने की परीक्षा लिया करते हैं. लेकिन बिहार के गरीब यह तो जरूर पूछेंगे कि यदि आपका बिजली बोर्ड ही आपके कहने में नहीं है तो इतना बड़ा राज्य तो भगवान भरोसे ही रहेगा.

 दरअसल बिहार जैसे राज्य में किसी गरीब के घर में बिजली की बत्ती और पंखा चलने का सम्बन्ध सीधे उसके स्वाभिमान से जुड़ा होता है. अगर यह देखना हो तो किसी मुसहर टोले के उस घर में चले जाइये जिसने किसी तरह पंखा खरीदने का सुख पाया है. यह मसला उनके बच्चों की पढाई लिखाई से भी जुड़ा है. दिन भर मेहनत-मजदूरी करने के बाद अगर किसी को पढने की इच्छा होती है तो यही बिजली उसकी मदद करती है.

एक समय था जब गांवों के दलितों के टोले में बिजली जलती दिखाई पड़ती थी तो तार काट लिए जाते थे कि न रहेगा तार और न जलेगी बिजली. काफी मेहनत और संघर्षों के बाद उन्होंने बिजली जलाने का हक़ पाया है और अब इसे बड़े तरीके से छीना जा रहा है. दुखद तो यह है कि इस मसले को लेकर सड़क पर उतरने को कोई भी तैयार नहीं. कम्युनिस्ट पार्टियाँ भी नहीं.

रविवार, 1 अप्रैल 2012

वाम राजनीति को झकझोर गयी सीपीआई की कांग्रेस

कमलेश
सीपीआई का इक्कीसवां महाधिवेशन ख़त्म हुआ. लगभग पांच दिनों तक चले इस कांग्रेस ने बिहार में उम्मीद की एक नई किरण जगाई है. कांग्रेस की शुरुआत एक रैली से हुई और इस रैली से  सूबे में वैसे लोगों को काफी सुकून मिला है जो बिहार में राजनीतिक बदलाव देखना चाहते हैं और जिन्हें राजद, कांग्रेस, जेडी य़ू या फिर बीजेपी जैसे दलों से कोई उम्मीद नहीं है. लम्बे समय के बाद पटना की सड़कों पर किसी वामपंथी दल ने अपनी ताकत दिखाई थी. पिछले दिनों माले की भी रैली हुई थी लेकिन उसके लोग सड़क पर उस दिन इस तरह नहीं उतरे थे. एक बड़ी रैली लेकिन अनुशासित और दूसरों की परेशानियों का ख्याल रखने वाली. हालाँकि रैली के बाद हुई सभा में इतनी भीड़ नहीं रही जितनी रैली में दिखाई पड़ी थी. शायद उस दिन चल रही लू और धूप का असर था. लेकिन उस दिन सीपीआई के महासचिव ए. बी. वर्धन के तेवर बता रहे थे कि सीपीआई अब बिहार में आर या पार की लड़ाई के मूड में है. उन्होंने न केवल वामपंथी एकता की बात की बल्कि क्षेत्रीय दलों से भी कहा कि वे फैसला करें कि उन्हें किसके साथ रहना है. कार्पोरेट और घोटालेबाजों की संरक्षक बीजेपी और कांग्रेस के साथ या फिर वाम जनवादी ताकतों के साथ.
महाधिवेशन के पहले दिन माकपा के महासचिव प्रकाश करात, माले के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य, आर एस पी के अवनी राय और एस य़ू सी आई के देवव्रत विश्वास सभी ने वामपंथी एकता की वकालत की. इससे लोगों में एक नया सन्देश गया है. एक बात साफ हो गयी है कि अगर वामपंथी ताकत बिहार में मिल कर नहीं लड़ेंगी  तो उन्हें ख़त्म हो जाना होगा. वैसे भी आम लोग आज भी इस बात को नहीं समझ पाते हैं कि भाकपा, माकपा और माले में अंतर क्या है और ये लोग अलग-अलग चुनाव क्यों लड़ते हैं. महाधिवेशन में भी जब ये नेता वाम एकता की वकालत कर रहे थे तो निचले स्तर के कार्यकर्त्ता अपनी तालियों से अपनी इच्छा बता रहे थे.
हिंदी पट्टी के बिहार जैसे राज्य में  सीपीआई का महाधिवेशन होने का मतलब ही है कि सीपीआई इन राज्यों में अपने घटते जनाधार से परेशान है. कभी बिहार विधान सभा में मुख्या विपक्षी दल रहने वाली सीपीआई के पास आज मात्र एक विधायक है. पार्टी के राष्ट्रीय सचिव अतुल कुमार अनजान ने एक बातचीत के दौरान स्वीकार किया कि हिंदी पट्टी में चली जातिवादी और सांप्रदायिक हवा के कारण उनकी पार्टी की जमीन कमजोर हुई है और बिहार में भी ऐसा ही हुआ है. लेकिन उन्होंने साथ यह भी कहा कि इस महाधिवेशन में हमलोग किट्टी पार्टी या हाउजी खेलने नहीं आये हैं. इस महाधिवेशनके माध्यम से  हमलोग बिहार में अपनी जमीन मजबूत करेंगे और वाम जनवादी आन्दोलन की शुरुआत करेंगे.

महाधिवेशन के अंतिम दिन जब ए.के. वर्धन अपना विदाई भाषण दे रहे थे तो भी उन्होंने साफ किया कि आने वाले दिनों में पार्टी हिंदी पट्टी खासकर बिहार में अपनी ताकत झोंकेगी. उन्होंने कार्यकर्ताओं का आह्वान किया कि वे गांवों में जाकर जमीन के मसले पर लड़ाई तेज करें. उन्होंने याद  दिलाया कि बिहार जैसे राज्यों में पार्टी तभी मजबूत रही थी जब उसने जमीन को लेकर लड़ाई लड़ी. नए महासचिव सुधाकर रेड्डी ने भी पार्टी के विस्तार के लिए हिंदी पट्टी में मेहनत का वादा किया.
तो उम्मीद रखी जाये कि आने वाले दिनों में बिहार में कम्युनिस्ट पार्टी की गतिविधियों को देखने का मौका मिलेगा. अभी बिहार विधान सभा में एकमात्र कम्युनिस्ट विधायक है और वह सीपीआई का ही है. इससे कोई इंकार नहीं कर सकता कि इस प्रदेश में आज भी सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी सीपीआई ही है. कई जिलों में आज भी उसका जनाधार तारीफ के काबिल है. महाधिवेशन में आये प्रतिनिधियों से बात करने से लगा कि इस बार वे बिहार में काम  कर रहे माओवादियों के प्रति भी नरम रुख अख्तियार करेंगे. मतलब यह कि इस बार अपनी जमीन को वापस पाने के लिए पार्टी कुछ भी करेगी. अभी पार्टी का राज्य सम्मलेन नहीं हुआ है. एक महीने के भीतर उसके होने की संभावना है. तय मानिये कि उस सम्मलेन के बाद बिहार में लड़ाई देखने को मिलेगी. इस सम्मलेन में पार्टी के कार्यकर्ताओं ने भी जिस तरह मेहनत की उससे अच्छा सन्देश गया है. पार्टी की बिहार इकाई ने इस सम्मलेन के लिए एक करोड़ रूपये से भी अधिक का चंदा जुटाया और इसका अधिकतर हिस्सा पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं ने दिया. किसी भी कम्युनिस्ट पार्टी के लिए यह साधारण बात नहीं है. इसके अलावा दो हजार लोगों के पांच दिनों तक खाने के लिए अनाज कार्यकर्ताओं ने गांवों से जुटाया. जाहिर है कि इस पुरे अभियान में पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं की पूरी ओवर वोयलिंग हो गयी होगी, 
लेकिन इस सारी कवायद का कोई मतलब नहीं होगा यदि इस कांग्रेस के बाद पार्टी के नेता  और कार्यकर्ता शांत होकर पड़ जाय. ऐसा न हो कि कहीं गोली चले और कामरेड पार्टी के सर्कुलर का इंतजार करते रहे. बिहार में गरीबों से बिजली की रोशनी में रहने का अधिकार छीना जा रहा है. राज्य में बिजली इतनी मंहगी हो गयी है कि एक बार फिर गरीब ढिबरी की रौशनी में रहने को विवश हो रहे हैं. इस सवाल को कम्युनिस्ट नहीं उठाएंगे तो फिर कौन उठाएगा. इस कांग्रेस के बाद बिहार की वामपंथी राजनीति में आलोडन आया है और आम लोग उनकी तरफ देख रहे हैं.