गुरुवार, 16 मई 2013

लालू का जादू या नीतीश के खिलाफ गुस्सा

कमलेश
पारा 45 डिग्री के आसपास। धूप ऐसी की चमड़ी जला डाले और गर्म हवा ऐसी जो आपके बदन के पानी का एक-एक कतरा सुखा दे। ठीक ऐसे समय में यदि हजारों लोग गांधी मैदान के बीच में घंटों बैठकर किसी के भाषण का इंतजार करते हों तो मतलब साफ है कि भाषण करने वाले का जादू उनके सर पर चढ़कर भले न बोल रहा हो लेकिन जलवा जरूर बरकरार है। 15 मई को लालू प्रसाद  की परिवर्तन रैली में आए लोग बिहार की सत्ता को यह बता रहे थे कि उसके सुशासन का जादू अब ढलान पर लुढ़कने वाला है। हाल के दिनों में नीतीश कुमार के खिलाफ यह चौथी रैली थी। पहली रैली भाकपा ने अपने कांग्रेस के मौके पर की, दूसरी रैली भाकपा माले ने की और तीसरी रैली नीतीश से अलग होने वाले उपेन्द्र कुशवाहा ने की। चौथी परिवर्तन रैली थी। इनमें से उपेन्द्र कुशवाहा की रैली को छोड़ दिया जाए तो बाकी सभी रैलियों में जमकर भीड़ उमड़ी और सब में जदयू-भाजपा की सरकार के खिलाफ गुस्सा दिखाई पड़ा। लालू की परिवर्तन रैली में यह गुस्सा कुछ ज्यादा ही मुखर होकर उभरा। हालांकि इस रैली के साथ ही उनपर परिवारवाद चलाने और धन के बेतहाशा खर्च के आरोप भी लग रहे हैं।

लालू की रैली एक ऐसे समय में हुई है जब एक तरह से बिहार में राजनीतिक संक्रमण का दौर चल रहा है। एक तरफ जनता दल यू में भाजपा का साथ छोड़कर कांग्रेस के साथ जाने की बेचैनी दिखाई पड़ रही है तो दूसरी तरफ लालू प्रसाद किसी भी कीमत पर कांग्रेस का साथ छोड़ने को तैयार नहीं। अगले दो जून को महाराजगंज लोकसभा क्षेत्र का उपचुनाव होने जा रहा है और इसे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए परीक्षा माना जा रहा है। उन्होंने इस चुनाव में अपने खास मंत्री पी.के. शाही को उम्मीदवार बनाया है जबकि यह सीट राष्ट्रीय जनता दल की है। अगले पांच-छह महीने के बाद लोकसभा चुनाव की तैयारियां शुरू होने वाली हैं। मतलब यह कि लालू प्रसाद ने अगर रैली के लिए यह समय चुना तो वह अनायास नहीं था। वह स्पष्ट रूप से आने वाली राजनीतिक घटनाओं की पहलकदमी अपने हाथ में लेना चाहते थे।
अगर रैली में उमड़ी भीड़ का आकलन किया जाए तो निश्चित रूप से लालू अपनी योजना में सफल रहे हैं। जिस तरह से 14 मई की रात से ही लोगों का पटना आना शुरू हुआ वह राजनीतिक विश्लेषकों को हैरत में डालने वाला था। 15 मई को सुबह आठ बजे से लोग सड़कों पर उतर आये थे। बारह बजते-बजते राजधानी पटना की सारी ट्रैफिक ठप हो गई थी और एक तरह से इन सड़कों पर दूर-दराज के गांवों से आये लोगों का कब्जा हो चुका था। लालू प्रसाद खुद रैली में तीन बजे पहुंचे लेकिन गांधी मैदान में लोगों का जुटान सुबह से होने लगा था। शायद यही कारण था कि धूप से परेशान लोग लालू प्रसाद के आने के साथ गांधी मैदान से निकलने भी लगे थे। लेकिन लालू प्रसाद को पता था कि उन्हें भाषण मे क्या बोलना है। उन्होंने सबसे पहले दलितों और पिछड़ों के सम्मान का मसला उठाया और लोगों से कहा कि आज जब वे बीडीओ के ऑफिस में जाते हैं तो बीडीओ उनके साथ कैसा व्यवहार करता है? थाने में दारोगा उनके साथ किस भाषा में बात करता है? उन्होंने सवाल किया कि बिहार में किनकी बच्चियों के साथ बलात्कार हो रहा है? दरभंगा, मधुबनी और किशनगंज के मुसलमान नौजवानों को आतंकवादी बताकर क्यों गिरफ्तार किया जा रहा है? इस मसले पर इस सरकार की जुबान बंद क्यों है? उन्होंने कांट्रैक्ट पर काम करने वाले शिक्षकों, डॉटरों और इंजीनियरों का मसला उठाया और लोगों को याद दिलाया कि जब वे अपनी मांग को लेकर पटना जाते हैं तो पुलिस किस तरह न केवल उनपर लाठी चलाती है बल्कि उन्हें झूठे मुकदमों में फंसाती भी है। इन सवालों पर भीड़ की प्रतिक्रिया देखने लायक थी।
इस रैली के साथ लालू प्रसाद की शारीरिक भाषा भी बदली है। वे पहले से ज्यादा आत्मविश्वास से भरे दिखाई पड़ रहे हैं। रैली में जिस तरह पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की भागीदारी हुई है उससे उन्हें लगा है उनका टूटा हुआ जनाधार एक बार फिर उनके साथ जुड़ रहा है। इस रैली में वे सवर्ण जातियां भी लालू के साथ खड़ी नजर आई जो नीतीश सरकार से नाराज हैं। जाहिर है कि इस रैली  के साथ उन्होंने कांग्रेस को यह संदेश देने की कोशिश की है अभी भी उसके लिए बिहार में गठबंधन के लिए उनसे मजबूत दूसरा कोई नहीं है।
लेकिन दूसरी तरफ इस रैली के साथ लालू प्रसाद पर लगने वाला परिवारवाद का आरोप और भी मजबूत हुआ है। इस रैली में उनके दोनों बेटों तेजप्रताप और तेजस्वी को जिस तरह से आगे किया गया उससे लालू पर हमले भी तेज हुए हैं। लालू के दोनों पुत्रों ने हालांकि रैली में भाषण नहीं दिया लेकिन वे मंच पर जिस तरह से आये उससे कई पुराने नेताओं का रंग फीका हुआ। रैली के प्रचार के दौरान भी दोनों पुत्रों को जिस तरह हीरो बनाया गया उससे कई नेताओं को अपनी उपेक्षा का अहसास हुआ है। बेटी मीसा भारती भी मंच पर दिखीं और पत्नी राबड़ी देवी तो पार्टी की कद्दावर नेता हैं ही। इन सबके बावजूद बिहार में नीतीश से नाराज लोगों को कोइ दूसरा विकल्प अब तक दिखाई नहीं पड़ रहा है। पिछले दिनों वामपंथी दलों ने संयुक्त मोर्चा बनाकर जनता के बीच जाने का ऐलान जरूर किया था लेकिन ऐसी कोई पहल कदमी दिखाई नहीं पड़ रही है।
इस रैली में लालू प्रसाद की अमीरी भी दिखाई पड़ी।  रैली में आदमी को लाने के लिए सात ट्रेनें बुक की गई थीं और इसके लिए रेलवे को डेढ़ करोड़ रुपये का भुगतान भी किया गया। इसके अलावा पूरे पटना को होर्डिंग और बैनरों से पाट दिया गया था। राजधानी में बसों की कतार लग गई थी। ऐसी कोई मंहगी गाड़ी नहीं जिसपर राजद के नेता नहीं पहुंचे हों। आयकर विभाग ने भी राष्ट्रीय जनता दल को नोटिस देकर पूछा है कि आखिर इस रैली पर उसने कितना पैसा खर्च किया। उसने पूरा हिसाब-किताब मांगा है।

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