गुरुवार, 17 नवंबर 2011

हताशा के अँधेरे में बिहार

हताशा के अँधेरे में बिहार
कमलेश
बिहार विरोधाभासों का राज्य बनता जा रहा है. एक तरफ देश भर में यह प्रचार कि इस राज्य ने विकास क़ी लम्बी छलांग लगाई है तो दूसरी तरफ असंतोष और आक्रोश हर जगह. यह अलग बात है क़ि विकास के प्रचार का डंका तो बज जाता है लेकिन आक्रोश के इजहार क़ी ख़बरें दम तोड़ देती हैं.
 राज्य क़ी सरकार देश भर में अपनी उपलब्धियों का ढिंढोरा जम कर पीट रही है. न केवल सरकार के मंत्री बल्कि राज्य के कई बुद्धिजीवी यह प्रचार करने में जुटे हैं कि बस अब कुछ ही दिनों क़ी बात है कि बिहार देश का सबसे विकसित राज्य हो जायेगा. जम कर आंकड़ों का खेल खेला जा रहा है. हाल में ही राज्य के विकास दर को लेकर जमकर हंगामा मचाया गया कि यह १४ फीसदी के पास पहुँच गयी है. लेकिन सूबे के ही कुछ अर्थशास्त्रियों ने इस दावे कि खिल्ली भी उड़ाई.
  अभी हाल में उन्होंने कई जगहों पर एक नया राग अलापा है. सरकार के मंत्री और मलाईमार  बुद्धिजीवी देश भर में  यह बता रहे हैं कि एक तरफ जबकि पूरे देश में चारपहिया वाहनों क़ी बिक्री घटी है वहीँ बिहार में इसकी बिक्री में जबरदस्त इजाफा हुआ है, वे आंकड़े बता रहे हैं कि बिहार में अभी चारपहिया वाहनों क़ी बिक्री में १२ फीसदी क़ी बढ़ोतरी हो रही है. वाहनों क़ी संख्या में बढ़ोतरी क्यों और कैसे हो रही है, यह एक अलग सवाल है पर जाहिर है कि बिहार सरकार इसे बिहार क़ी सम्पन्नता का प्रतीक मान रही है.
लेकिन जिस समय बिहार सरकार यह आंकड़ा देकर गर्व से अपना माथा ऊपर कर रही है उसी समय एक और आंकड़ा आया है जिसने सोचने वालों के दिमाग में खलबली मचा दी है.  यह आंकड़ा न केवल बिहार सरकार क़ी उपलब्धियों का सच बता रही  हैं बल्कि वे यह भी बताते हैं कि बिहार क़ी युवा पीढ़ी आज किस तरह क़ी निराशा और कुंठा में जी रही है. एक तरह से शायद यह मोह भंग क़ी पराकाष्ठा ही है. राष्ट्रीय क्राइम रिकार्ड ब्यूरो ने अभी हाल में एक आंकड़ा जारी किया है और यह आंकड़ा बताता है क़ि बिहार क़ी राजधानी पटना में आत्महत्या करने की दर देश भर में सबसे ज्यादा है. ब्यूरो के अनुसार पिछले वर्ष २०१० के मुकाबले इस साल आत्महत्या करने वालों क़ी तादाद में १३६.५ फीसदी क़ी बढ़ोतरी हुई है. वर्ष २००९ में पटना में जहाँ ६३ लोगों ने आत्महत्या क़ी वहीँ २०१० में यह संख्या १४९ पर पहुँच गयी. सबसे चिंता क़ी बात यह है कि आत्महत्या करने वालों में लगभग ९० फीसदी संख्या युवाओं क़ी है. आत्महत्या करने वालों में केवल बेरोजगार नौजवान ही शामिल नहीं हैं इनमे ऐसे नौजवान भी शामिल हैं जो मेडिकल कॉलेज या फिर आइ आइ टी के छात्र हैं. जनवरी से लेकर सितम्बर के बीच पटना के नौ छात्रों ने आत्महत्या कर ली. अगर देश के कई राज्य किसानों क़ीआत्महत्या के लिए कुख्यात हो गए हैं तो जल्दी ही बिहार युवाओं क़ी आत्महत्या के लिए चर्चित होने वाला है.  बिहार में किसी भी तरह क़ी नकारात्मक खबर के लिए केंद्र सरकार पर अंगुली उठाने वाली राज्य सरकार यह नहीं कह सकती है कि ये तो आंकड़े केंद्र सरकार के हैं. आखिर राष्ट्रीय क्राइम रिकार्ड ब्यूरो को आत्महत्या जैसी घटनाओ के आंकड़े राज्य सरकार क़ी ही पुलिस तो देती है. सबसे अफ़सोस की बात यह है कि ये आंकड़े उस बिहार के हैं जहाँ के नौजवानों ने प्रतिरोध संघर्षों क़ी मिसाल कायम क़ी है. चाहे १९७४ का छात्र आन्दोलन हो या बिहार के धधकते किसान आन्दोलन सभी आंदोलनों के अगुवा दस्ते के रूप में नौजवान ही रहे हैं. ऐसी विरासत वाले नौजवानों में यदि इस कदर हताशा आई है तो सोचना होगा क़ि गड़बड़ी कहाँ पर है.
दरअसल राज्य में नीतीश कुमार कि सरकार बनने के बाद जैसे घोषणाओ क़ी बाद आ गयी. ऐसा लगा कि देश के सारे उद्योगपति बिहार में निवेश करने के लिए दौड़े चले आ रहे हैं. अब राज्य में कोई भी बेरोजगार नहीं रहेगा. हर साल एक लाख नौजवानों को नौकरी देने तक क़ी घोषणा हुई. कहा गया कि अब राज्य में विधि व्यवस्था कोई समस्या नहीं रही. सरकार क़ी इन घोषणाओ ने युवाओ में ललक भी जगाई और कहा तो ये जाने लगा क़ि प्रदेश में नई सरकार को सबसे ज्यादा युवाओ का समर्थन प्राप्त है,. तब यह भी कहा गया क़ि दुसरे राज्यों में मजदूरी करने वाले लोग वापस बिहार लौट रहे हैं और कई राज्यों में मजदूरों का संकट हो गया है. बात कुछ हद तक सही भी थी. राज्य सरकार ने षिक्षकों, विकास मित्र और न्याय मित्र जैसे पदों के लिए बड़ी संख्या में बहाली निकाली. लेकिन थोड़े ही समय के बाद युवाओ को लगने लगा क़ि वे ठगे जा रहे हैं. जिस काम  के लिए स्थाई शिक्षकों को १५ से २० हजार रुपये प्रतिमाह मिलते हैं उसी काम के लिए इन नए शिक्षकों को ४ से ५ हजार रूपये दिए जाते हैं. अब उनके संगठन  बन गए हैं और वे अपनी सेवा को स्थाई करने के लिए आन्दोलन के रास्ते पर हैं. न्यायमित्रों के लिए तो शुरू से ही वेतन के लाले हैं.
ऐसे आत्महत्या क़ी इन घटनाओ को विकास के साइड इफेक्ट भी कहा जा रहा है. ये कहा जा रहा है कि दुनिया में हर उस जगह ऐसी घटनाएँ हुई हैं जहाँ विकास हुवा है. कहा यह भी जा रहा है कि विकास आता है तो पैसे आते हैं. सपने हजार होते हैं और आदमी का दिमाग असमान में चला जाता है. मगर असलियत तो यही है कि जमीन बहुत कठोर है. हकीकत तो यह है कि लोगों को दो वक्त कि रोटी जुटाने में हालत ख़राब हो जाती है. राज्य क़ी सरकार शायद ही इस मसले को गंभीरता से ले.

1 टिप्पणी:

  1. इस साहसिक रिपोर्ट के लिये बधाई.बिहार के बहुत कम पत्रकार नीतीश सरकार के बारे में ऐसे खुल कर बोल या लिख रहे हैं.

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