गुरुवार, 14 नवंबर 2013

कौन बचायेगा- हरिजन?

कमलेश
आप उन्हें संघी कह सकते हैं। उन्हें कोई एतराज भी नहीं था। कई बार वे खुद भी कहते थे। अपने कॉलम में भाजपा की चर्चा करते हुए वे जैसे अघाते थे उससे कई बार कोफ्त होती थी। लेकिन उनमें एक बात थी- वे वामपंथियों के लिखने-पढ़ने की क्षमता के जबर्दस्त कायल थे। कई बार अपने खास लोगों को से इस बात को शेयर भी किया करते थे। जब भी वे नौकरी देने की हालत में रहे उन्होंने वामपंथी विचारों के पत्रकारों को जमकर अवसर दिया। यह जानते हुए अवसर दिया कि सामने वाला उनके विचारों से इत्तेफाक नहीं रखता है।
जी, मैं बात दीनानाथ मिश्र की कर रहा हूं। जबसे उनके निधन की खबर मिली है उनका चेहरा आंखों के सामने तैर रहा है। और साथ में याद आ रही है उनसे पहली मुलाकात। तब मैं इंटर या शायद थर्ड इयर का विद्यार्थी हुआ करता था। बक्सर के एक छोटे से कॉलेज का छात्र। वामपंथी छात्र संगठन से जुड़ा हुआ। कालेज की कक्षा से ज्यादा सड़कों पर आन्दोलनों में दिखाई पड़ने वाला। लेकिन लिखने-पढ़ने का शौक था। लिहाजा अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं में लिखता रहता था। उस समय नवभारत टाइम्स का पटना से प्रकाशन शुरू हुआ था। दीनानाथ मिश्रजी उसके पहले संपादक थे। तब उस अखबार में स्वतंत्र पत्रकारों को लिखने का खूब स्पेस मिलता था। वहां काम करने वाले पत्रकारों की टीम भी जबर्दस्त थी। फिर कभी बिहार के किसी हिन्दी अखबार में इतने सशक्त पत्रकारों की टीम देखने को नहीं मिली। शायद यह भी दीनानाथजी का ही असर था।
इसी दौरान एक दिन वहां काम कर रहे नवेन्दु भैया (वरिष्ठ पत्रकार) का संदेश आया था- नवभारत टाइम्स को कुछ कैम्पस रिपोर्टर चाहिए। अप्लाई कर दो। मैंने बगैर कुछ सोचे केवल एक आवेदन भेज दिया था। अचानक एक दिन इंटरव्यू की चिठ्ठी भी आ गई। और मैं इंटरव्यू देने पटना नवभारत टाइम्स के दफ्तर पहुंचा था। अपने चैम्बर में दीनानाथजी बैठे थे। कभी चेहरे पर तो कभी बालों पर हाथ फेरते हुए। कुछ और लड़के आये थे। मैं यह जानकर चकित था कि उनमें से अधिकतर न केवल आन्दोलनकारी छात्र नेता थे बल्कि वामपंथियों की भी संख्या अच्छी-खासी थ्ी।
जब मैं कक्ष में पहुंचा तो दीनानाथजी ने बड़े स्नेह से पूछा था- आज ही आये हो? इसके बाद उन्होंने चाय मंगाई थी। फिर पूछा- कुछ लिखते-पढ़ते हो? मैंने अपने कुछ आलेख उन्हें देखने के लिए पकड़ा दिये थे। उनमें से अधिकतर उन लघु पत्रिकाओं में प्रकाशित आलेख थे जिन्हें वामपंथी ही नहीं नक्सली मिजाज का माना जाता था। करीब 15 मिनट तक उन आलेखों को गौर से देखने के बाद उन्होंने कहा था- पत्रकारिता में क्यों आना चाहते हो? राजनीति में क्यों नहीं चले जाते? मैंने कहा क्योंकि मैं कहीं और नहीं जा सकता। दीनानाथजी ने धीरे से हंस कर कहा- जो तुम लिखते पढ़ते हे उसे लेकर डर नहीं लगता? कोई मारेगा तो? मेरे लिए यह सवाल थोड़ा अप्रत्याशित था। मैंने कहा- कोई मारेगा तो बचायेंगे वे लोग जिनके लिए मैं लिखता-पढ़ता हूं। दीनानाथजी थोड़ा मुस्कुराये थे। फिर पूछा था- कौन बचायेगा- हरिजन? मैं समझ गया कि दीनानाथजी का इशारा किस तरफ है? मैंने कहा था- जनता अपने-आप में सुरक्षा कवच होती है सर। इस पर खूब जोर से हंसे थे दीनानाथजी। फिर कहा था- अपना यह जज्बा बनाकर रखना। आने वाले दिनों में इस जज्बे को लेकर पत्रकारिता करने वाले कम लोग मिलेंगे। इसके बाद उन्होंने पास बैठे गुंजनजी से कहा था- इस लड़के की चिठ्ठी बनवा दीजिए।
इसके महीनों बाद अचानक नवभारत टाइम्स के दफ्तर में सामना हो गया था उनसे। उन्हें मुझे पहचानने में मुश्किल से पांच मिनट लगे होंगे। उन्होंने हंसकर कहा- क्या पटना आ गये? मैंने कहा- नहीं सर, बक्सर में ही हूं। उन्होंने प्यार से कहा था- कोई दिक्कत हो तो बताने में संकोच मत करना।
अभी जब उनके निधन की खबर सुनी तो लगा कि भ्राविष्य को कितनी गहरी दृष्टि से देख रहे थे दीनानाथजी।  उनके आलेखों को लेकर, उनके कॉलम को लेकर कई बार हम कहते थे- ऐसे भाजपा का प्रचार नहीं करना नहीं चाहिए उनको। आखिर एक पत्रकार की मर्यादा का तो उन्हें निर्वहन करना चाहिए। लेकिन अब लगता है कि आदमी चाहे किसी भी विचार के साथ हो, उसके पक्ष में उसे मजबूती से खड़ा होना ही चाहिए।    

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