गुरुवार, 16 फ़रवरी 2012

भारतीय मीडिया के गर्व और कलंक

-प्रो. अमर्त्य सेन
भारत का आजाद  मीडिया यहाँ के जनतंत्र के लिए एक महत्वपूर्ण संसाधन है. यहाँ का आजाद और गुंजायमान प्रेस इस देश की महान उपलब्धियों में से एक है. यह एक ऐसा कार्य है जो जनतंत्र से सीधे जुड़ा हुआ  है. सत्ता केवल विपक्ष को कुचलकर ही नहीं बल्कि सूचनाओं को व्यवस्थित तरीके से दबा कर भी फलती फूलती है. भारतीय जनतंत्र के अस्तित्व और इसके फलने-फूलने ने हमारे प्रेस की आजादी और इसकी ताकत के साथ एक मजबूत सम्बन्ध बनाया है. ऐसे कई अवसर आये हैं जब अमेरिका और यूरोप में बैठे होने के बावजूद मैंने भारतीय मीडिया के बहुपक्षीय संतुलन और इसकी ताकत पर भरोसा किया है. एक पुराना उदाहरण अमेरिका में ब्रिटिश नेशनल हेल्थ सर्विस और यूरोप के अधिकांश हिस्सों में काम कर रही सार्वजानिक स्वास्थ्य सुविधाओं के चरित्र हनन से जुडा है. अमेरिका में दी न्यूयार्क टाइम्स जैसा शानदार अख़बार होने के बावजूद सूचना उद्योग सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं के शानदार काम की जड़ खोदने में लगा हुआ है.  राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा और इसी की तरह की दूसरी सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं को हेल्थ लाक अप की तरह दिखाया जाता है. इसे सामाजिक दवा बताकर चारों तरफ एक भय फैलाया जाता है. मैंने एक अफवाह सुनी है कि अमेरिका में बच्चों को इस बात से डराकर फूलगोभी खिलाई जाती है कि यदि उन्होंने यह नहीं खाया तो इसके भयानक विकल्प के रूप में उन्हें सामाजिक दवा खानी पड़ेगी.
पेशा और शुद्धता 
भारतीय समाचार  मीडिया की सीमाओं के बावजूद
इनमें से कुछ की चर्चा मैं अभी करूँगा. हमारे पास भारत की मुक्त मीडिया की तारीफ करने के पर्याप्त कारण मौजूद हैं. इसमें विशाल और उन्मुक्त प्रेस शामिल है जो जनतांत्रिक भारत के लिए बड़ा और महत्वपूर्ण साधन है. हालाँकि भारतीय मीडिया का यह अनुष्ठान कुछ दूर तक तो चल सकता है लेकिन बहुत आगे नहीं. यहाँ कम से कम दो बड़ी बाधाएं हैं जिन पर चर्चा होनी चाहिए. एक तो मीडिया के आतंरिक अनुशासन से जुडी है और दूसरी मीडिया और समाज के बीच के रिश्ते को दिखाती है. पहली समस्या शुद्धता प्राप्त करने के क्रम में लापरवाही से जुडी है. हालाँकि इसमें गलत सूचना देने की सुविचारित मंशा नहीं होती है फिर भी यह नुकसानदेह है.





दूसरी समस्या पूर्वाग्रह प्रेरित है और अक्सर यह पूर्वाग्रह छुपा हुआ होता है. यह पूर्वाग्रह इस बात में भी दिखाई पड़ता है कि किस खबर को कवर करना है और किसे छोड़ देना है. यह पूर्वाग्रह भारत के वर्ग विभाजन से भी जुड़ा है. भारतीय रिपोर्टिंग अच्छी हो सकती है और अक्सर यह अच्छी होती भी है. मैं हमेशा रिपोर्टरों की कुशलता पर चकित हो जाया करता हूँ. उनकी कुशलता उन सूक्ष्म तथ्यों को भी बाहर निकल लेने में दिखाई पडती है जिन्हें ठीक-ठीक संक्षिप्त करना भी कठिन होता है. फिर भी भारतीय मीडिया की एक बड़ी विशेषता विषमता बताई जाती है और कई बार गंभीर गलतियाँ भी  मीडिया के माध्यम से या मीडिया की पहल से हो जाया करती है. मैं व्यक्तिगत रूप से भाग्यशाली रहा हूँ कि मीडिया से जुडी ऐसी कई समस्याओं को मैंने अपने अनुभव से देखा है. एक भारतीय पाठक के रूप में जब भी मैं अख़बार खोलता हूँ तो इस बात से मैं निश्चिन्त हो जाना चाहता हूँ कि जो भी मैं पढ़ रहा हूँ वह पूरी तरह से सही है. लेकिन इस तरह की आश्वस्ति कठिन है.
मुझे दो उदाहरण देने दीजिये- मुझे फिर से इस पर जोर डालना चाहिए-ये प्रेस में रिपोर्टिंग के मेरे अच्छे अनुभव को दिखाते हैं. चार दिन पहले एक सार्वजनिक परिचर्चा में लोकपाल पहल से जुड़े एक सवाल के जवाब में मैंने कहा कि भ्रष्टाचार जैसी महत्वपूर्ण समस्या का समाधान भारतीय जनतांत्रिक व्यवस्था (इसमें अदालतें और संसद शामिल हैं) में होना चाहिए. मैंने यह भी कहा कि मैंने किसी मजबूत लोकपाल बिल का ब्लूप्रिंट नहीं देखा है- न तो सरकार की तरफ से और न ही विपक्ष के ही किसी खेमे की तरफ से.बाद में जब मैंने वेब खोला तो मैंने ऐसी हेडलाइंस पाई- लोकपाल बिल सुविचारित है- अमर्त्य सेन (दी टाइम्स  ऑफ़ इंडिया, इंडिया टुडे, जी न्यूज़, एन डी टी वी और दूसरे ). दूसरी हेडलाइन थी- लोकपाल बिल सुविचारित नहीं- अमर्त्य सेन (डी एन ए न्यूज़, मनी कंट्रोल, दि टेलीग्राफ और दूसरे). एक अख़बार ने पहले पहली स्टोरी चलायी और फिर बाद में उसने दूसरी वाली स्टोरी चला दी. हैरत की बात यह है कि उसने संशोधन की कोई  सूचना नहीं दी. मैं चकित था कि यह अख़बार इकोनोमिक्स टाइम्स था जिससे मैं व्यक्तिगत रूप से जुडा हुआ था. कुछ साल पहले मुझे इस अख़बार को एक दिन के लिए सम्पादित करने का मौका मिला था (वह मेरे लिए एक महान दिन था. हालाँकि संपादक से मिली कई रिपोर्ट को मैंने ख़ारिज कर दी जबकि कई को मैंने दुबारा लिखने के लिए कहा था.)
उसी दिन कोलकाता की एक दूसरी मीटिंग में कैंसर फाउंडेशन  ऑफ़ इंडिया के लिए एक लेक्चर था. मैंने उसकी हेडलाइन देखी- सिगरेट पीना एक व्यक्तिगत विकल्प है (दी स्टेटसमैन ). स्मोकर्स की आजादी को सीमित करें- अमर्त्य सेन (दी हिंदुस्तान टाइम्स). ये सारी ख़बरें एक ही दिन थी. दुर्भाग्य से किसी चीज की एक गलत खबर के बड़े परिणाम हो सकते हैं. 15 दिसम्बर को टाइम्स  ऑफ़ इंडिया ने लिखा- अमर्त्य सेन: आम आदमी भ्रष्टाचार से नहीं निपट सकता. मैंने इस तरह का कुछ नहीं कहा था. व्याख्यान की ऑडियो रिपोर्ट इसकी पुष्टि कर सकती है. लेकिन एक न्यूज़ एजेंसी से गलत खबर आने के बाद उसका कई अख़बारों द्वारा उपयोग किया गया. लेकिन जब यह गलत खबर लोगों के बीच आ गयी है तो यह कैसे संभव है कि मुझ पर फटकारों की बारिश न हो और मुझे नैतिक सलाह न दिए जाएँ. इसकी निंदा में तुरत दर्जनों पृष्ठ रंग दिए गए. अधिकतर नैतिक सलाहों से यही बात प्रतिध्वनित हो रही थी जैसे यह वक्तव्य मेरा ही हो. एक बयान जिसे मैंने बहुत पसंद किया वह यह था- मैं सोचता हूँ कि मि. सेन को अपना मुंह बंद रखना चाहिए. वास्तव में जो मैंने कहा वह यह था कि भ्रष्टाचार पर फैसले और दंड सड़क पर होने वाले न्याय के विषय नहीं हैं. इन्हें उन जनतांत्रिक तरीकों से होना चाहिए जो इस देश में मौजूद हैं. इसमें संसद और अदालतें शामिल हैं. मुझे भरोसा है कि भारतीय जनता को त्वरित न्याय के मुकाबले जनतांत्रिक तरीकों पर विश्वास है. इस मामले में जो शिकायतें आ रही हैं वे यह है कि जनतांत्रिक प्रक्रियाएं  भ्रष्टाचार के खिलाफ पर्याप्त प्रभावशाली और कठोर तरीके से काम नहीं करती हैं. यह सचमुच एक महत्वपूर्ण मांग है और यह समझ भ्रष्टाचार से उठने वाली राजनीतिक चुनौती से निपटने की आम आदमी की योग्यता से बहुत दूर है. भारत में होने वाले कई अन्यायों के खिलाफ मैंने सड़क पर होने वाले प्रदर्शनों में भाग लिया है. इनमें से एक हाल की गतिविधि राइट टू फ़ूड के लिए होने वाले आन्दोलन से जुडी थी.
तो रिपोर्टिंग में आ रही शुद्धता की कमियों से निपटने के लिए मीडिया को क्या करना चाहिए. मैं उत्तर नहीं जानता- यहाँ मेरा मुख्य ध्येय सवाल उठाना है. लेकिन सीधा और सरल विचार यह है कि सभी अख़बारों को इस बात पर सहमत होना चाहिए कि वे नियमित फीचर के रूप में अपनी स्टोरीज के संशोधन प्रकाशित करेंगे (और उन्हें ऑनलाइन उजागर करेंगे तथा उसके साथ संशोधित विवरण भी देंगे.). दी न्यूयार्क टाइम्स और दी गार्जियन द्वारा यह काम काफी प्रभावशाली तरीके से किया जाता है और कुछ भारतीय अख़बारों में भी यह मौजूद है (हिन्दू में यह कई वर्षों से है ). लेकिन यह काम सभी अख़बारों द्वारा ज्यादा सार्वजनिक रूप से किया जाना चाहिए और यह ज्यादा से ज्यादा लोगों की जानकारी में होना चाहिए.
पत्रकारों की ट्रेनिंग का भी एक मसला है. भीड़-भाड़ और जल्दबाजी में नोट्स लेना कभी आसान काम नहीं रहा है और आज के दौर में भी यह अधिकतर रिपोर्टरों के लिए कठिन बना हुआ है. पूर्व की तरह आज के रिपोर्टर शार्ट हैण्ड नहीं जानते हैं. लेकिन आज की हमारी आधुनिक दुनिया में रेकार्डिंग के शानदार उपकरण मौजूद हैं और इनका उपयोग सभी जगह किया जा सकता है बजाय इसके कि रिपोर्टर अपनी स्मरण शक्ति पर भरोसा करें जैसा कि अभी भी बहुत सारे लोग करते हैं. असावधानी से होने वाली गलतियों को कम करने के दूसरे भी तरीके हैं और उन पर चर्चा हो तो उसके अच्छे नतीजे सामने आएंगे. लेकिन अब मैं दूसरी समस्या पर आना चाहूँगा जिसकी चर्चा मैं पहले कर चुका हूँ.
वर्ग आग्रह
यदि बड़े पैमाने पर शुद्धता मीडिया के लिए आन्तरिक चुनौती है तो वर्ग आग्रह एक बाहरी चुनौती है जो भारतीय समाज के विभाजन से सम्बन्ध रखती है. वस्तुतः वर्ग विभाजन हर जगह मौजूद है. अमेरिका में वाल स्ट्रीट पर कब्ज़ा करो  आन्दोलन ने लोगों का ध्यान उस विरोध की ओर खींचा जो अत्यंत समृद्ध (शिखर पर रहने वाले एक प्रतिशत) और बाकी के 99 प्रतिशत लोगों के बीच मौजूद है. मैं यहाँ अमेरिका में लागू 1 प्रतिशत और 99 प्रतिशत के बीच के अंतर्विरोध पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करूँगा लेकिन ध्यान रखने वाली बात यह है कि भारत में भी उसी तरह के विभाजन पर भरोसा करना एक लम्बे अंतर के निशान को भूलने की तरह होगा. यह सच है कि भारत में कई तरह के  विभाजन हैं- इनमें कुछ तो अख़बारों के मालिकाने पर भी लागू होते हैं- लेकिन वह विभाजन जो भारतीय न्यूज़ कवरेज के जातिगत पूर्वाग्रह से परिचित कराता है,  अख़बार पढने वालों के हितों से जुड़ा  है. यह विभाजन भारत की आबादी के उस भाग्यशाली हिस्से जो भारत में हो रही आर्थिक प्रगति का फल भोग रहा है और शेष जो लोग पीछे छूट गए हैं उनके बीच का है.
वास्तव में भारत का धनी तबका अल्पसंख्यक है लेकिन फिर भी वह गिनती के मामले में बड़ा है. उसके हिसाब से भारत का आर्थिक विकास अच्छी तरह से हो रहा है. ऐसा वे लोग भी मानते हैं जिन्हें पहले से विशेषाधिकार प्राप्त हैं. भारतीय मीडिया ऐसे ही लोगों के जीवन पर जरूरत से ज्यादा ध्यान केन्द्रित करके उन्हें उभारने की कोशिश कर रहा है. इस तरह से वह भारत में जो कुछ भी हो रहा है उसकी झूठी तस्वीर प्रस्तुत कर रहा है. नए मीडिया में भाग्यशाली लोगों की जीवन शैली के कवरेज की अत्यधिक प्रवृति दिखाई पड़ती है. जो अभागे लोग हैं उनकी समस्याओं पर कम से कम ध्यान दिया जाता है. कई दुर्भाग्यपूर्ण तथ्यों की ओर इशारा किया जा सकता है. वैसे यह सूची काफी लम्बी हो सकती है-
1 . भारत में कुपोषित बच्चों का प्रतिशत पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा है.
2 . भारत चीन के मुकाबले स्वास्थ्य सेवाओं पर बहुत कम पैसा खर्च करता है और यहाँ जीवित रहने की संभावना (लाइफ एक्स्पेक्स्टेसन) बहुत कम है.
3 . भारत, पाकिस्तान, बंगला देश, श्रीलंका, नेपाल और भूटान के आंकड़े देखे जाएँ तो लड़कियों की स्कूलिंग, शिशु मृत्यु दर, टीकाकरण और जीवित रहने की संभावना के मामले में स्टैण्डर्ड सोशल इंडकेटर पर भारत का एवरेज रैंक बदलता रहता है. पिछले बीस वर्षों में भारत का स्थान सेकेण्ड बेस्ट से सेकेण्ड वर्स्ट पर आ गया है. हालाँकि प्रति व्यक्ति उत्पाद के मामले में भारत आगे है.
यह समस्या मीडिया में नहीं दिखाई पड़ती है क्योंकि यह सामाजिक विभाजन ही है जो कवरेज में पूर्वाग्रह को खाद-पानी देता है. मीडिया भारत की वास्तविकता को लोगों तक पहुँचाने में ज्यादा रचनात्मक भूमिका निभा सकता है. कवरेज में पूर्वाग्रह पाठक के लिए भी कहीं से सुखदाई नहीं है. यह भारत के वंचितों को अभावों से छुटकारा दिलाने में हो रही राजनीतिक उदासीनता को ही बल प्रदान करता है. भाग्यशाली समूह में न केवल व्यावसायिक नेतृत्वकर्ता और पेशेवर वर्ग शामिल है बल्कि देश के बुद्धिजीवियों का समूह भी इसी में आता है. प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से यह समूह राष्ट्रीय विकास को खूब प्रचारित करता है और इस तरह से वह एक थोपी हुई वास्तविकता को ही दिखाता है जबकि यह सच का आंशिक हिस्सा ही होता है.
जांच और उपेक्षा
विशेषाधिकार प्राप्त और तेजी से समृद्ध हो रहे भारतीयों का तबका इस बात को मान कर चलता है कि देश में आर्थिक विकास की दर ऊंची है और लोगों के जीवन स्तर को ऊपर उठाने के लिए अलग से किसी सामाजिक प्रयास की जरूरत नहीं है. उदाहरण के लिए जब सरकार गरीबों के लिए अनुदानित राशन देना शुरू करती है, जैसा उसने हाल में किया, तो बहुत बड़ी संख्या में आलोचक इसमें शामिल राजकोषीय समस्याओं की तरफ इशारा करने लगते हैं. यहाँ तक कि कुछ लोग तो खाद्य सुरक्षा बिल में कथित तौर पर उजागर होने वाली गैर जिम्मेवारी की भी चर्चा करने लगते हैं.
वास्तव में खाद्य सुरक्षा बिल में कई खामियां हैं और इसमें काफी सुधार की गुंजाईश है. उम्मीद है कि इसमें सुधार भी होगा. साथ ही राजकोषीय जिम्मेवारी निश्चित रूप से एक गंभीर मसला है और दूसरी सामाजिक योजनाओं की तरह खाद्य अनुदान के लिए राशि देना कठोर परीक्षण की मांग करता है. लेकिन यह भी पूछा जाना चाहिए कि राजस्व से जुडी दूसरी समस्याओं पर मीडिया में चर्चा क्यों नहीं होती. उदाहरण के तौर पर हीरे और सोने को कस्टम ड्यूटी से मुक्त करना. वित्त मंत्रालय के अनुसार इस कदम से राजस्व का बहुत बड़ा घाटा लगा है (50 हजार करोड़ रूपये सालाना ) और यह खाद्य सुरक्षा बिल में लगने वाली अतिरिक्त राशि 27 हजार करोड़ रूपये से बहुत कम है. मंत्रालय के सालाना प्रकाशित होने वाले दस्तावेज में विभिन्न मदों में छोड़ दी जाने वाली राशि 511 करोड़ रूपया प्रतिवर्ष दिखाई जाती है. वास्तव में इस राशि को बचाया जाना चाहिए. हालाँकि इस तरह छूट जाने वाली राशि को पकड़ना बहुत मुश्किल है और इसीलिए मैं इसे गुलाबी मूल्यांकन नहीं मान रहा हूँ. लेकिन अभी भी यह समझना कठिन है कि खाद्य सुरक्षा बिल की लागत को राजकोषीय अँधेरे से अलग क्यों नहीं निकाला जाये और राजकोष की मजबूती के दुसरे रास्तों की परीक्षा क्यों नहीं की जाये. एक सक्रिय मीडिया हमारा ध्यान इस बात की ओर भी दिलाता है कि किस बात की समीक्षा हो रही है और कौन सी बात चर्चा से छूट रही है. भारत के विशेषाधिकार प्राप्त और अधिकारविहीन के बीच के विभाजन का असर इंधन के उपयोग में सब्सिडी के वकीलों की राजनीतिक ताकत के रूप में देखा जा सकता है. यह सब्सिडी जो लोग अपेक्षाकृत धनी हैं (जैसे कार वाले ) और कृषि को मिलती है. ज्यादा आर्थिक बुद्धिपरकता ज्यादा पर्यावरण सम्बन्धी जागरूकता और कुशलता के साथ समानता की मांग के लिए राजकोषीय व्यवस्थाओं की पुनर्संरचना संभव है. वर्तमान अपव्यय को बनाये रखने और इसे सहने के लिए राजनीतिक समर्थन मिल जाता है लेकिन जब भी गरीबों, भूखों और बेकारों की मदद की बात होती है तो राजकोषीय खतरे की घंटी बज जाती है.
यदि पहली समस्या जिसकी चर्चा मैंने शुद्धता के रूप में की है मीडिया बेहतर गुणवत्ता और नियंत्रण के माध्यम से ठीक कर सकता है. लेकिन दूसरी समस्या जो वर्ग पूर्वाग्रह को दिखाती है उसकी चिंता इस बात से जुडी है कि देश की समस्याओं की संतुलित रिपोर्टिंग कैसे की जाये. भारतीय जनता के कार्य-कलाप में मीडिया एक बड़ी मदद कर सकता है और यह भारतीय समाज के केवल भाग्यशाली वर्ग की ही नहीं बल्कि सभी लोगों के विकास के बेहतर मार्ग की तलाश कर सकता है. भारतीय जनतंत्र में न्यूज़ मीडिया के कार्यों की आत्मा होनी चाहिए- पूर्वाग्रहों के त्याग के साथ शुद्धता का समन्वय. वास्तव में दोनों समस्याएँ एक दुसरे की पूरक हैं.
प्रो. अमर्त्य सेन का यह लेख हिन्दू में प्रकाशित हुआ था. इसका हिंदी अनुवाद पत्रकार कमलेश ने किया है.