शनिवार, 11 मई 2013

अलविदा साथी गंगेश, आप बहुत याद आएंगे

गंगेश आप बहुत याद आएंगे ( उनकी फोटो)
-कमलेश

इस पेशे की यही विसंगति है। आपके साथ रोज काम करने वाला साथी अचानक इस दुनिया को विदा कह देता है और आपके पास इस  दारूण दुख को बर्दाश्त करने का समय भी नहीं होता। आप एक दिन के लिए भी खबरों की रफ्तार से बाहर निकलकर अपने दोस्त को याद करने के लिए नहीं रुक सकते। आपके लिए अपने मित्र की मौत की खबर भी अखबार में छपने वाली एक खबर भर हो जाती है। आज फिर ऐसा ही हुआ। अपने दोस्त, साथी, मित्र और सुख-दुख के राजदार गंगेश श्रीवास्तव अचानक इस दुनिया को छोड़ कर चले गये। हमने खबर सुनी, एक मिनट के लिए आह किया और फिर अपने काम में जुट गये। उनके डेस्क पर किसी और साथी को काम करते हुए देखकर उनका चेहरा आंखों के सामने घूमा लेकिन अखबार की तेजरफ्तार जिंदगी ने कुछ सोचने का समय ही नहीं दिया।
वे मुझे हमेशा भाई साहब कहते थे। उम्र में मुझसे काफी छोटे थे। चार साल से हमलोग एक दूसरे के साथ काम कर रहे थे। ईश्वर से डरने वाले और कभी किसी का अहित नहीं करने वाले गंगेश। सांवला-सलोना चेहरा, बोलती हुई सी बड़ी आंखें, होठों पर हमेशा मुस्कुराहट, पतला-दुबला शरीर और अक्सर माथे पर झूलते केश। देखकर शायद ही कोई कह सकता था कि ये शादी-शुदा आदमी हैं। हमेशा इस बात को लेकर सावधान रहते कि उनके कारण किसी को परेशानी नहीं हो। तकरीबन दो साल पहले मैं और गंगेश दफ्तर की एक जरूरी मीटिंग के सिलसिले में दिल्ली गये थे। हमें एक प्रजेन्टेशन देना था। सारा प्रेजेन्टेशन गंगेश ने रात भर जगकर तैयार किया था। मुझे केवल इसे लोगों के सामने रखना था। मैंने कहा था उनसे- गंगेशजी, सारी मेहनत आपने की है तो प्रेजेन्टेशन भी आपको करनी चाहिए। गंगेश मुस्कुराकर बोले थे- अरे भाई साहब, आदमी को वही काम करना चाहिए जो वह अच्छी तरह कर सकता हो। मैंने इसे अच्छी तरह तैयार कर दिया है अ‍ैर अब आप इसे अच्छी तरह प्रस्तुत कर दीजिए। दिल्ली में इस बात को लेकर हमेशा सावधान रहे कि मुझे तो कोई परेशानी नहीं हो रही है। पटना कार्यालय में कभी-कभी मेरी टेबुल के सामने आते थे और कहते थे- भाई साहब, मुझे फलां खबर में इस तरह का इनपुट चाहिए। प्लीज दिलवा दीजिए। मैं परेशान। संबंधित रिपोर्टर चला गया। मुझे मामले के बारे में कोई जानकारी नहीं। मैं कहता- गंगेशजी, रिपोर्टर तो चला गया है। अब मैं ही कुछ कोशिश करके देखता हूं। मेरी परेशानी देखते ही मुस्कुरा देते गंगेशजी। कहते- रहने दीजिए भाई साहब, मैं कर लूंगा। टेंशन मत लीजिए।
जब गंगेशजी ने हिन्दुस्तान पटना ज्वाइन किया था तो तत्कालीन संपादक अकु श्रीवास्तव ने उनसे मेरा परिचय कराते हुए कहा था- अब तुम इस आदमी का कमाल देखना। इसकी भोली सूरत पर मत जाना। कमाल तो इसकी अंगुलियों में है। सचमुच अगले ही दिन से गंगेश का जादू पेज पर दिखने लगा था। ले आउट और डिजाइन के तो मास्टर थे वो आदमी। एक बार काम में लगे तो काम पूरा कर ही डालना है। पूरी रात जगकर काम करने के बाद भी अगले दिन फिर समय पर मुस्कुराते हुए ऑफिस पहुंचना। किसी से कोई शिकायत नहीं। तत्काल निर्णय लेने की जबर्दस्त क्षमता थी। मात्र यही नहीं जो निर्णय लेते उसे तत्काल लागू भी करते थे। 
मुझसे कई बार थोड़ी-बहुत बहस भी होती थी। उनके आने के कुछ दिनों के बाद। लेकिन जल्दी ही हमलोग अच्छे दोस्त बन गये थे। वे निरंकारी संत समाज से जुड़े थे। कई बार उसकी खबर लेकर आते तो मुझे यह याद दिलाना नहीं भूलते कि मैं वामपंथी आदमी हूं। लेकिन अगले दिन अच्छी खबर देखकर मिलते ही मुस्कुरा देते थे। जिस दिन वे अखबार की समीक्षा करने बैठते, मैं तो डर जाता था। हर चीज पर बारीक नजर। खबरों को लेकर एकदम अलर्ट। किसी खबर से जुड़ी कौन सी खबर कब छपी है यह उन्हें हमेशा याद रहती थी।
काम के दौरान साथियों के साथ खूब हंसी-ठिठोली करते। पटना सिटी से आने वाले नवलजी से खुरचन खिलाने की जिद करना तो महेन्द्र झा से ठिठोली करना। कभी सत्येन्द्र पाण्डेयजी से कहना- महाराज, आप तो युवा के इंचार्ज हैं। खिलाना तो आपका हक बनता है। और जब तक सत्येन्द्रजी मिठाइयां न मंगा दें, उनका पीछा नहीं छोड़ते थे। सचिन तेंदुलकर ने शतक ठोंकी नहीं कि पहुंच जाते थे सुनील झा के डेस्क के आगे। उसके बाद शुरू हो जाती जिद- भाई साहब, जब तक आप चंद्रकला और समोसा नहीं मंगायेंगे तब तक पता कैसे चलेगा कि सचिन ने शतक बनाई है। वे तब तक सुनील झा का पीछा नहीं छोड़ते जबतक कि वे उनकी फरमाइश पूरी नहीं कर देते। दशहरे में खुद जलेबियां मंगाते और सबको बुलाकर खिलाते। फिर कहते- जलेबियां नहीं तो दशहरे का मजा कहां साहब।
माता-पिता के इकलौते पुत्र थे गंगेश। पिता बहुत बीमार रहते थे। इसके चलते कभी गांव, कभी पटना तो कभी अस्पताल का चक्कर। लेकिन क्या मजाल कि कभी कोइ शिकन भी उनके चेहरे पर आ जाए। पिछले साल ही उनके पिता का निधन हुआ था। तब बहुत दुखी हुए थे। पिता के वे कितने करीब थे यह उस समय दिखाई पड़ा था। अभी उस सदमे से उबरे ही थे कि मौत ने पंजा मारकर उन्हें हमसे छीन लिया। अब उनकी यादें भर हमारे साथ रहेंगी लेकिन ये यादें तब तक हमारे पास रहेंगी जबतक अखबार के कागजों की खुशबू बरकरार रहेगी। अलविदा साथी गंगेश, आप बहुत याद आएंगे। 

4 टिप्‍पणियां:

  1. मुझे याद आ रहा है कि करीब दो साल पहले हिन्दुस्तान, पटना के तत्कालीन सम्पादक अकु श्रीवास्तव के चैम्बर में उनसे मुलाक़ात हुई थी.. सम्पादकजी ने ही उनसे मेरा परिचय कराया था. सिर्फ एक मुलाक़ात में ही मै यह जान गया था कि ये शख्स क्या है ? आज अखबार देखकर यकीन नहीं हुआ कि ...

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  2. इस अत्यंत दुखद असह्य हादसे की पीड़ा को मित्र गंगेश के परिवार जन झेल पाए यही प्राथना है |

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  3. इस दुःख की घड़ी में हम सब उनके परिबार के साथ है ,हमलोग आपकी पीड़ा समझ सकते है ,अपनों से बिछुरने का गम झेलना आसान नहीं होता ..

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  4. भीगी पलकों से आलविदा गंगेश भाई.अब देखना है कि मौजूदा सरकार और आपका हिन्दुस्तान आपके परिवार के लिए क्या करता है.

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