कमलेश
वामपंथियों के प्रिय कवि मुक्तिबोध की कविता है- तोड़ने ही होंगे गढ़ और मठ पुराने सभी, उठाने ही होंगे अभिव्यक्ति के खतरे तमाम। बिहार में वामपंथियों ने अपने विरोधियों के कितने गढ़ और मठ तोड़े ये तो नहीं पता लेकिन उन्होंने अपने सभी पुराने गढ़ जरूर ध्वस्त कर दिये। उनके जनाधार पर उन्हीं लोगों का कब्जा हो गया जिन्हें वामपंथियों ने अपना साथी बनाकर गलबहियां की थी। एक जमाना था कि बिहार वामपंथियों का मजबूत गढ़ माना जाता था। कभी बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता भाकपा के कद्दावर नेता सुनील मुखर्जी हुआ करते थे। इस सूबे के कई लोकसभा क्षेत्रों को मास्को और लेनिनग्राद के नाम से याद किया जाता था लेकिन आज यहां यह हालत है कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मात्र दो लोकसभा क्षेत्रों से चुनाव लड़ रही है जबकि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी माक्र्सवादी को एक भी क्षेत्र से चुनाव लड़ने का मौका नहीं मिल पा रहा हे। यह जरूर है कि भाकपा माले के उम्मीदवार 23 सीटों से चुनाव लड़ रहे हैं लेकिन इन 23 क्षेत्रों में भी अने वाले दिनों में यह देखना दिलचस्प होगा कि वह कितने सीटों पर मुकाबले में रह पाती है।
लोकसभा चुनावों के दौरान बिहार में वामपंथियों की धमक पहली बार 1962 में सुनाई पड़ी थी जब बेगूसराय से भाकपा के वाई शर्मा, पटना से रामावतार शास्त्री और जहानाबाद से चंद्रशेखर सिंह चुनाव जीतकर संसद पहुंचे थे। 1971 के लोकसभा चुनाव में यह संख्या बढ़ी और केसरिया (बाद में मोतीहरी और अब पूर्वी चम्पारण) से कमला मिश्र मधुकर, जयनगर (मधुबनी) से भोगेन्द्र झा, जमुई से भेला मांझी, पटना से रामावतार शास्त्री अैर जहानाबाद से एक बार फिर चंद्रशेखर सिंह भाकपा के टिकट पर चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचे थे। लेकिन 1977 में जनता पार्टी की आंधी में वामपंथियों की पताका बिखर गई और उन्हें बिहार से एक भी सीट नहीं मिल सकी। 1980 में वामपथियों ने एक बार फिर अपनी ताकत जुटाई और भाकपा ने फिर बिहार की चार सीटों पर कब्जा जमाया। इनमें मोतीहारी से कमला मिश्र मधुकर, बलिया से सूर्यनारायण सिंह, नालंदा से विजय कुमार यादव और पटना से एक बार फिर रामावतार शास्त्री ने जीत हसिल की।
1984 लोकसभा चुनाव में पटना की सीट पहली बार भाकपा के हाथ से निकली और फिर कभी इस पर भाकपा का कब्जा नहीं हो सका। अब तो इस सीट से भाकपा के उम्मीदवार भी चुनाव नहीं लड़ते। 1984 में मात्र दो सीटों पर भाकपा की विजय पताका लहराई। नालंदा से विजय कुमार यादव और जहानाबाद से रामाश्रय प्रसाद सिंह चुनाव जीतकर संसद पहुंचे। 1989 के चुनाव में एक बार फिर भाकपा का तो जलवा दिखा ही पहली बार माकपा ने भी बिहार में अपनी जीत दर्ज कराई। इस चुनाव में भाकपा के उम्मीदवार के रूप में मधुबनी से भोगेन्द्र झा, बलिया से सूर्यनारायण सिंह, बक्सर से तेजनारायण सिंह और जहानाबाद से रामाश्रय प्रसाद सिंह जीते जबकि नवादा में पहली बार माकपा उम्मीदवार के प्रेम प्रदीप जीत कर संसद पहुंचे। इसी चुनाव में आईपीएफ (अब भाकपा माले) के उम्मीदवार के रूप में रामेश्वर प्रसाद पहली बार आरा से चुनाव जीतकर संसद पहुंचे थे। 1991 का चुनाव बिहार में भाकपा के लिए सबसे अच्छा चुनाव रहा। इस चुनाव में मोतीहारी से कमला मिश्र मधुकर, मधुबनी से भोगेन्द्र झा, बलिया से सूर्यनाराण सिंह, मुंगेर से ब्रह्मानंद मंडल, नालंदा से विजय कुमार यादव, बक्सर से तेजनारायण सिंह भाकपा उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीते जबकि नवादा माकपा के उम्मीदवार के रूप में प्रेमचंद राय चुनाव जीते। 1996 में मधुबनी से चतुरानन मिश्र, बलिया से शत्रुघ्न प्रसाद सिंह और जहानाबाद से रामाश्रय प्रसाद सिंह चुनाव जीते। इसके बाद बिहार से भाकपा का कोई नेता लोकसभा का चेहरा नहीं देख सका। हां, 1999 में भागलपुर से माकपा उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीतकर सुबोध राय लोकसभा पहुंचे और इसके बाद माकपा का भी खाता नहीं खुला।
इसके बाद से वामपंथियों के नसीब में कभी जीत नहीं आई। बेगूसराय लोकसभा क्षेत्र से भाकपा के उम्मीदवारों ने हर बार मजबूत टक्कर जरूर दी लेकिन कभी जीत नहीं सके। ए.एन. समाज अध्ययन संस्थान के निदेशक और समाजशास्त्री डॉ. डी.एम. दिवाकर का मानना है कि बिहार में वामपंथी अपने एजेंडे से भटकने की सजा पा रहे हैं। बिहार में जबतक इनके एजेंडे पर भूमि सुधार, न्यूनतम मजदूरी और गरीबी निवारण जैसे मुद्दे मुखर रहे तबतक जनता भी इनके साथ रही लेकिन जब वामपंथियों ने इन सवालों को छोड़ दिया तो जनता ने भी उनका साथ छोड़ दिया। डॉ. दिवाकर के अनुसार बिहार में वामपंथियों का आधार मुख्य रूप से अनुसूचित जाति, जनजाति और कृषि श्रमिकों के बीच था। अगर वामपंथी इनके मसलों को लेकर आन्दोलन करते तो ये वर्ग जाति के आधार पर नहीं बंटते। निचली जातियों ने जब यह देखा कि वामपंथी उनके मसलों के नहीं उठा रहे हैं तो ये जातियां जातिवादी दलों के साथ चली गई और वामपंथियों के गढ़ एक-एक कर ध्वस्त होते चले गये।
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