केकर थाना, कचहरी केकर
कमलेश
बिहार में एक पुरानी कहावत है- बारह साल के बाद एक युग बदलता है. और वो सारी चीजें भी बदल जाती हैं जो पहले से चली आ रही थी. लेकिन बिहार का एक छोटा सा गांव बथानी टोला जैसे इस कहावत पर हंस रहा है और बदलाव की बात करने वालों को आइना दिखा रहा है.. यहाँ तो सोलह साल के बाद भी कुछ नहीं बदला. न तो मरने वालों की किस्मत और न ही मारने वालों का राज-पाट. सब कुछ वही है-वही राजा-महाराजाओं के ज़माने वाला. मरने वाले आज भी मर रहे हैं और मारने वाले कल से ज्यादा नृशंस तरीके से मार रहे हैं. पुलिस, कोर्ट और कचहरी सब मारने वालों के पक्ष में खड़े दिखाई पड़ रहे हैं. यही नहीं दिखाने के लिए एक दूसरे पर जिम्मेदारियों की फेंका फेंकी का खेल भी चल रहा है. बथानी टोला के मामले में लगभग सोलह साल के बाद आये हाई कोर्ट के फैसले को देखने के बाद वर्षों पहले सुना हुआ एक भोजपुरी गीत याद आ रहा है- पुलिस केकर, मलेटरी केकर, केकर थाना, कचहरी केकर. हम भयनी कौड़ी के तीन पटवारी केकरा नामे जमीन;ये गाना बथानी टोला के लोग भी खूब गाते थे लेकिन इस गाना का अर्थ शायद अब उन्हें मालूम चल रहा होगा.
देश भर में न सही लेकिन बिहार में तो इस खबर पर बात चल ही रही है. बथानी टोला में सोलह साल पहले हुए एक नरसंहार के सारे तेईस अभियुक्तों को हाई कोर्ट ने बरी कर दिया है. उस नरसंहार में 21 लोग मारे गए थे. निचली अदालत ने इन बरी हुए तेईस लोगों में से तीन को फांसी और बीस को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी. हाई कोर्ट ने उसके फैसले को ख़ारिज कर दिया. हाई कोर्ट ने वैसे यह जरूर कहा कि अभियुक्तों को बचाने के लिए जाँच कार्य में लापरवाही बरती गयी है. हाई कोर्ट ने भले अब कहा हो लेकिन इस नरसंहार कांड के बाद से ही पुलिस के रवैये से साफ जाहिर हो रहा था कि इस पूरे मामले में उसकी सहानुभूति किसके साथ थी.राज्य के पुलिस मुखिया अब हाई कोर्ट के इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने की बात कह रहे हैं लेकिन यह नहीं बताते कि जिन बेहया और बदचलन पुलिस वालों के कारण बथानी टोला के लोगों के हाथ से इंसाफ निकाल गया उन पुलिस वालों को क्या सजा दी जाएगी. दिलचस्प तो यह भी है कि बथानी टोला को लेकर केंद्रीय गृह मंत्री चिदंबरम कह रहे हैं कि इस मामले में आन्दोलन होना चाहिए. बथानी टोला के लोगों को गृह मंत्री की इस बात का मतलब समझ में नहीं आ रहा है.
भोजपुर जिले के सहार प्रखंड का एक गांव है बथानी टोला. एक जमाने में बिहार में चल रहे भूमि संघर्षों की आंच में तपता और खौलता गांव. एक तरफ गांव के भूमिहीन खेत मजदूर और दलित थे तो दूसरी ओर भूमिपति. दलितों के पक्ष में खड़ी थी भाकपा माले तो भूमिपतियों के लिए हरवा हथियार से लैस थी खूंखार रणवीर सेना. दोनों के बीच पिछले कई वर्षों से लगातार लड़ाई जारी थी. 11 जुलाई 1996 को बथानी टोला में उतरा था मनहूस दिन. दोपहर के करीब एक बजे पचास-साठ लोग गांव में घुस आये थे. सभी हथियारों से लैस थे. रणवीर सेना के इस जत्थे में किसी के हाथ में बन्दुक थी तो किसी के हाथ में तलवार और किसी के हाथ में भाला. गांव में हुआ हल्ला-रणवीर सेना वाला आ गइलन स. इधर हमलावर गोलियां बरसाने लगे. लोगों को जिधर जगह मिली उधर भागे. गांव के मारवाड़ी चौधरी के घर में छुपने के लिए लोग भागे. हमलावरों ने मारवाड़ी चौधरी के घर के साथ-साथ झोपड़ियों में आग लगा दी. कुछ लोग जल कर मरे तो कुछ लोगों को गोली मार दी गयी. कई लोग तो तलवार से काट डाले गए. कुल 21 लोग मारे गए थे. मरने वालों में तीन साल का अमीर सुभानी था तो चालीस साल की जेबू निशा भी थी. हत्यारों ने छोटे बच्चों के साथ-साथ गर्भवती महिलाओं को भी नहीं छोड़ा था. गांव के ही एक नईमुद्दीन के घर के पांच सदस्य मार डाले गए थे. गांव में बना शहीद स्मारक आज भी मारे गए लोगों की याद दिलाता है. अब ऐसा लग रहा है जैसे इस सच को ही झूठ बनाने की कवायद चल रही है.
बथानी टोला के लोग अब चुप हैं. शांति से सब कुछ देख रहे हैं. उस नरसंहार को याद करना नहीं चाहते, ऐसा भी नहीं है. वे आज भी उस स्मारक को देखते हैं और डर जाते हैं. उनको लगता है कि कोई फिर आकर उन्हें तबाह कर देगा और अदालत से भी बेदाग छुट जायेगा. कल भी ऐसा ही होता था और आज भी ऐसा ही हो रहा है. दरअसल वे जुबान से कुछ नहीं बोलते लेकिन उनकी ऑंखें सब कुछ कह रही हैं. बथानी टोला से एक सवाल उठ रहा है- अगर निचली अदालत से सजा पाने वाले सभी लोग निर्दोष थे तो उस नरसंहार को अंजाम देने वाले कौन थे. बथानी टोला की जमीन पर गिरे उन 21 लोगो का खून किसके माथे पर है. अगर गरीब लोग मारे गए थे तो मारने वाले भी जरूर हैं. उन्हें सजा कब मिलेगी. एक बार फिर उन्हें वह गीत याद आ रहा है -पुलिस केकर, मलेटरी केकर, केकर थाना, कचहरी केकर. हम भयनी कौड़ी के तीन पटवारी केकरा नामे जमीन;
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