कमलेश
माले क़ी भ्रष्टाचार मिटाओ लोकतंत्र बचाओ रैली ने एक बात साफ कर दी है कि अब बिहार क़ी राजनीति लम्बे समय तक विपक्ष विहीन रहने वाली नही है. आने वाले दिन सुशासन बाबु के लिए खतरनाक हो सकते हैं. माले ने इस रैली में आये लोगों ने जिस तेवर के साथ अपने संघर्षों का एलान किया है उससे लगता है कि आर-पार कि लड़ाई होगी. रैली में आये गरीबों ने जता दिया कि वे सुशासन के पीछे का असली सच जानते हैं. और वे लम्बे समय तक आंकड़ो क़ी बाजीगरी झेलने के लिए तैयार नहीं हैं.
बिहार में अभी मुख्य मंत्री नीतीश कुमार के लिए सबसे बड़ी राहत क़ी बात यही है कि सूबे में उनके सामने कोई विपक्ष नही है. पिछले छह सालों से वे बिलकुल बेखटका राज चला रहे हैं. आन्दोलन तो दूर कोई विरोध में बोलने वाला तक नहीं है. राष्ट्रीय जनता दल कहने को तो विधान सभा में मुख्य विपक्षी दल है लेकिन इसके सबसे बड़े नेता लालू प्रसाद अब दिल्ली के वासी हो गए हैं. उनका बिहार आना-जाना प्रवासी नेताओं क़ी तरह ही होता है. अब तो यह पता ही नहीं चलता कि वे कब पटना आये और कब लौट गए. बिहार सरकार क़ी आलोचना वे बिलकुल औपचारिक अंदाज में करते हैं. उनके दल के दूसरे नम्बर के नेता जनता दल यू में शामिल हो गए तो कार्यकर्त्ता ठीकेदारी खोज रहे हैं. अभी पिछले महीने उनकी पार्टी की ओर से आयोजित मार्च भी कोई असर नहीं छोड़ पाया. राजद के साथ गठबंधन चला रहे लोक जनशक्ति पार्टी के सुप्रीमो राम विलास पासवान के लिए बेटे का फ़िल्मी करियर अहम है. वैसे भी उनकी रही-सही राजनीति राजद ने ख़त्म कर दी है. बिहार में कांग्रेस के बारे में कुछ कहना बेकार है.
ले-देकर वामपंथी दलों से ही उम्मीद बच गयी है. ठीक ऐसे मौके पर माले क़ी रैली वामपंथी राजनीति में एक आलोड़न पैदा करने में सफल रही है. अगर माले की दूसरी रैलियों से इसकी तुलना करें तो यह कमजोर दिखाई पड़ सकती है लेकिन अगर नीतीश विरोधी रैलियों की बात करें तो यह एक मजबूत रैली थी और इस नाते इसने उम्मीद तो जगाई ही है. उम्मीदें और जवान होने वाली हैं. अगले साल मार्च में सीपीआइ का महाधिवेशन पटना में होने वाला है. उम्मीद कीजिये कि बिहार में जन पक्षधर राजनीति अगले साल करवट ले सकती है. अगर कम्युनिस्टों क़ी ही भाषा में बोले तो आज इतिहास ने बिहार में कम्युनिस्ट पार्टियों के कंधे पर बड़ी जिम्मेदारी डाल दी है. अगर वे आगे बढ़कर इस जिम्मेदारी को पूरा करते हैं तो बिहार क़ी राजनीति में एक बार फिर वे केंद्रीय भूमिका निभाने क़ी स्थिति में होंगे.
कम्युनिस्ट पार्टियों के पास इसके अलावा कोई चारा भी नहीं है. बिहार क़ी संसदीय राजनीति में एक तरह से उनका अस्तित्व पूरी तरह से ख़त्म हो गया है. आज बिहार विधान सभा में कम्युनिस्ट पार्टियों क़ी हिस्सेदारी के नाम पर केवल एक सीट सीपीआइ के नाम पर है. पिछले विधान सभा के चुनाव में माले के सारे विधायक चुनाव हर गए तो माकपा क़ी हालत पहले से पतली चल रही थी. उनके सारे परम्परागत गढ़ ढह गए. माले का भोजपुर वीरान हो गया तो सीपीआइ के बेगुसराय में कोई दम नही रह गया. माकपा का तो वैसे बिहार में पहले से कुछ खास असर नही था. जहाँ था वहां से उनके पांव पहले ही उखड़ चुके थे. समस्तीपुर थोड़ा बाद में पस्त पड़ा पुर्णिया तो बहुत पहले हाथ से निकल चूका था. बक्सर पहले से अंतिम सांसे ले ही रहा था. ऐसे में उनके सामने एक ही रास्ता बचता है कि जनसंघर्षों की बदौलत अपनी खोई जमीन फिर से प्राप्त करें. वैसे यह पता है कि कम्युनिस्टों के लिए यह मानना मुश्किल है कि उनकी जमीन खिसक रही है. दरअसल अपने को बिहार की सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी मानने की जिद इसमें बाधक बनती है. बिहार के मेहनतकश लोग उस दिन का बड़ी शिद्दत से इन्तेजार कर रहे हैं जब ये तीनों कम्युनिस्ट पार्टियां ही नही माओवादी पार्टी के जन संघटन भी कदम से कदम मिलकर लड़ाई शुरू करेंगे. उम्मीद कीजिये की वह समय जल्दी आएगा और बिहार के सामने सचमुच एक वाम जनवादी विकल्प खड़ा होगा.
माले क़ी भ्रष्टाचार मिटाओ लोकतंत्र बचाओ रैली ने एक बात साफ कर दी है कि अब बिहार क़ी राजनीति लम्बे समय तक विपक्ष विहीन रहने वाली नही है. आने वाले दिन सुशासन बाबु के लिए खतरनाक हो सकते हैं. माले ने इस रैली में आये लोगों ने जिस तेवर के साथ अपने संघर्षों का एलान किया है उससे लगता है कि आर-पार कि लड़ाई होगी. रैली में आये गरीबों ने जता दिया कि वे सुशासन के पीछे का असली सच जानते हैं. और वे लम्बे समय तक आंकड़ो क़ी बाजीगरी झेलने के लिए तैयार नहीं हैं.
बिहार में अभी मुख्य मंत्री नीतीश कुमार के लिए सबसे बड़ी राहत क़ी बात यही है कि सूबे में उनके सामने कोई विपक्ष नही है. पिछले छह सालों से वे बिलकुल बेखटका राज चला रहे हैं. आन्दोलन तो दूर कोई विरोध में बोलने वाला तक नहीं है. राष्ट्रीय जनता दल कहने को तो विधान सभा में मुख्य विपक्षी दल है लेकिन इसके सबसे बड़े नेता लालू प्रसाद अब दिल्ली के वासी हो गए हैं. उनका बिहार आना-जाना प्रवासी नेताओं क़ी तरह ही होता है. अब तो यह पता ही नहीं चलता कि वे कब पटना आये और कब लौट गए. बिहार सरकार क़ी आलोचना वे बिलकुल औपचारिक अंदाज में करते हैं. उनके दल के दूसरे नम्बर के नेता जनता दल यू में शामिल हो गए तो कार्यकर्त्ता ठीकेदारी खोज रहे हैं. अभी पिछले महीने उनकी पार्टी की ओर से आयोजित मार्च भी कोई असर नहीं छोड़ पाया. राजद के साथ गठबंधन चला रहे लोक जनशक्ति पार्टी के सुप्रीमो राम विलास पासवान के लिए बेटे का फ़िल्मी करियर अहम है. वैसे भी उनकी रही-सही राजनीति राजद ने ख़त्म कर दी है. बिहार में कांग्रेस के बारे में कुछ कहना बेकार है.
ले-देकर वामपंथी दलों से ही उम्मीद बच गयी है. ठीक ऐसे मौके पर माले क़ी रैली वामपंथी राजनीति में एक आलोड़न पैदा करने में सफल रही है. अगर माले की दूसरी रैलियों से इसकी तुलना करें तो यह कमजोर दिखाई पड़ सकती है लेकिन अगर नीतीश विरोधी रैलियों की बात करें तो यह एक मजबूत रैली थी और इस नाते इसने उम्मीद तो जगाई ही है. उम्मीदें और जवान होने वाली हैं. अगले साल मार्च में सीपीआइ का महाधिवेशन पटना में होने वाला है. उम्मीद कीजिये कि बिहार में जन पक्षधर राजनीति अगले साल करवट ले सकती है. अगर कम्युनिस्टों क़ी ही भाषा में बोले तो आज इतिहास ने बिहार में कम्युनिस्ट पार्टियों के कंधे पर बड़ी जिम्मेदारी डाल दी है. अगर वे आगे बढ़कर इस जिम्मेदारी को पूरा करते हैं तो बिहार क़ी राजनीति में एक बार फिर वे केंद्रीय भूमिका निभाने क़ी स्थिति में होंगे.
कम्युनिस्ट पार्टियों के पास इसके अलावा कोई चारा भी नहीं है. बिहार क़ी संसदीय राजनीति में एक तरह से उनका अस्तित्व पूरी तरह से ख़त्म हो गया है. आज बिहार विधान सभा में कम्युनिस्ट पार्टियों क़ी हिस्सेदारी के नाम पर केवल एक सीट सीपीआइ के नाम पर है. पिछले विधान सभा के चुनाव में माले के सारे विधायक चुनाव हर गए तो माकपा क़ी हालत पहले से पतली चल रही थी. उनके सारे परम्परागत गढ़ ढह गए. माले का भोजपुर वीरान हो गया तो सीपीआइ के बेगुसराय में कोई दम नही रह गया. माकपा का तो वैसे बिहार में पहले से कुछ खास असर नही था. जहाँ था वहां से उनके पांव पहले ही उखड़ चुके थे. समस्तीपुर थोड़ा बाद में पस्त पड़ा पुर्णिया तो बहुत पहले हाथ से निकल चूका था. बक्सर पहले से अंतिम सांसे ले ही रहा था. ऐसे में उनके सामने एक ही रास्ता बचता है कि जनसंघर्षों की बदौलत अपनी खोई जमीन फिर से प्राप्त करें. वैसे यह पता है कि कम्युनिस्टों के लिए यह मानना मुश्किल है कि उनकी जमीन खिसक रही है. दरअसल अपने को बिहार की सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी मानने की जिद इसमें बाधक बनती है. बिहार के मेहनतकश लोग उस दिन का बड़ी शिद्दत से इन्तेजार कर रहे हैं जब ये तीनों कम्युनिस्ट पार्टियां ही नही माओवादी पार्टी के जन संघटन भी कदम से कदम मिलकर लड़ाई शुरू करेंगे. उम्मीद कीजिये की वह समय जल्दी आएगा और बिहार के सामने सचमुच एक वाम जनवादी विकल्प खड़ा होगा.
हाम बिल्कुल सही कहा कमलेश जी आपने.लेकिन इन तमाम चीजों के बावजूद ये वामपंथ ही है जो इस राज्य के चरित्र को बाकी हिंदी प्रदेशों से अलग करता है.बिहार में वाम पार्टियों की ताकत भले विधान्सभा में कम हो पर अभी भी अपनी कम्जोरियों के बाद भी यहां के जनतांत्रिक जन्मत की आवाज वाम ही है.सीटों के लिहाज से वाम की ताकत आंकना शायद ठीक नहीं है.लोगों के सवाल जैसे इंदिरा आवास,मनेरगा,बी.पी.एल, जैसे सवाल पर पूरी शिद्दत के साथ वाम ही है इसके अलावा यहां के बैद्धिक और साहित्यिक जगत,रंगमंचीय जगत में बायें बाजू के लोगों का बहुत योग्दान है. वैसे आपकी भावना सही है कि वाम के सभी हिस्सों को चाहे वो चुनाव में भाग लेता हो या नहीं सब को मिल्कर जनांदोंलनों के माध्यम से एक वाम जन्वादी विकल्प तैयार करने की दिशा में काम करना चाहिये अभी उसके लिये सबसे मुफ़ीद समय है
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