कमलेश
हंसराज नहीं रहे। एक साल पहले उनका निधन हो गया- और यह खबर मुझे तब मिली जब मैंने बिहार नौजवान सभा के एक पुराने कार्यकर्ता कामेश्वर भाई को फोन किया। मैं सबका हाल-चाल ले रहा था। फलां कैसे हैं और फलां क्या कर रहे हैं? जैसे ही मैंने हंसराज के बारे में पूछा वे चौंक गये- तुम्हें नहीं पता? वे तो पिछले साल ही चल बसे। अचानक। चुपचाप अपने दुखों के साथ। लड़ाई की स्मृतियों को अपने सीने में संजोए। किसी को बगैर कुछ बताये। मैं फोन पकड़े सन्नाटे में डूबा रहा। थोड़ी देर बाद मैंने शिकायत की- किसी ने मुझे बताया भी नहीं। कामेश्वर भाई ने बताया कि कुछ पुराने साथियों ने बक्सर में छोटी सी सभा करके श्रद्धांजलि दे दी। दूर बैठे साथियों को सूचना कौन देता?
साथी हंसराज। हंसराज मल्लाह। हंसराज केवट। गायक हंसराज। और प्रशासन की नजर में नक्सली हंसराज। दोस्तों की भाषा में राका तो भोजपुर-बक्सर के महानतम किसान आन्दोलन के समर्थन में उतरे छात्र-नौजवानों के लिए काका। एक पांव जेल में तो दूसरा पांव नुक्कड़ों पर नाटकों में। उम्र साठ साल के ऊपर लेकिन जब तान खींचकर गाते- जाग बाबू जाग हमरा दूध के दुलार हो...... तो पूरा माहौल उनके ठेठ गंवई आवाज की जादू में डूब जाता। दिन भर या तो गंगा नदी में अपने नाव पर रहते या हमलोगों के साथ घुमक्कड़ी करते और शाम में देर रात तक नाटक का रिहर्सल और इसके बाद ढ़ोलक की थाप पर उनके जनगीतों का आनन्द।
दिसम्बर महीने की एक सर्द शाम में उनसे पहली बार मिला था मैं। तब मैं इंटर का छात्र हुआ करता था और एक संस्कृतिकर्मी। कोहरे में डूबा बक्सर का कोईरपुरवा मोहल्ला और उसके पीछे का हरिजन टोला। नागरिक अधिकार सुरक्षा समिति की बैठक खत्म हुई थी और मैं ठंड से लगभग ठिठुर रहा था। जो चादर मैंने ओढ़ रखी थी वह उस कड़ाके की ठंड के आगे अपने हाथ खड़े कर चुकी थी। कुहासा पानी की बूंद बनकर टपक रहा था। अचानक एक उम्रदराज व्यक्ति ने मेरे कंधे पर हाथ रखा- अरे नन्हका, चल ना नीम के नीचे लकड़ी जरवले बानी......। नन्हक हमारे यहां प्यार से छोटे बच्चे को कहा जाता है। मैंने उनका चेहरा देखा- हल्की सफेद दाढ़ी, खिचड़ी बाल, लुंगी और बदन पर केवल एक चादर। पांव में टायर वाली चप्पल। पेड़ के नीचे जली अलाव और हंसराज ने गोरख पांडे का वह मशहूर गीत गाना शुरू किया- समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई...। प्रो. विजयानंद तिवारी ने परिचय कराया- हंसराज हैं लेकिन रहबर नहीं मल्लाह।
हंसराज पढे-लिखे नहीं थे। बस अक्षर ज्ञान भर था। लेकिन जब समाज की व्याख्या करते तो सामने वाला चकित रह जाता। अदिम समाज से अब तक की व्याख्या बिलकुल एक आम आदमी के अनुभवों में शामिल घटनाओं के साथ और आम आदमी की भाषा में। पहले सीपीआई में थे और जब पार्टी टूटी तो सीपीएम के साथ आ गये। सीपीएम के टूटने के बाद सीपीआई एमएल के साथ। कभी कामरेड मोती (बिहार और उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती जिलों में काम करने वाले कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी नेता) को गंगा पार कराने के लिए शाम से ही नाव तैयार करते। कामरेड मोती के साथ ही उन्होंने मार्क्सवाद के कई पाठ सीखे। उस दौर की बातें वे हम नौजवानों को बड़ी गर्व से सुनाते थे। वे उस दौर में गाया जाने वाला एक गीत भी सुनाते थे- गरीब लाल झंडा गौर से पहचानो...। जेल जाना तो जैसे उनकी रूटीन में शामिल था। एक बार वे जेल गये तो मैं उनसे मिलने पहुंचा। तब उन्होंने कवि विजेन्द्र अनिल से परिचय कराया था। वे भी उनसे मिलने पहुंचे थे।
साल तो ठीक-ठीक याद नहीं लेकिन ये याद है कि तब बक्सर में गंगा नदी को ठेकेदारों से मुक्त करने का आन्दोलन चल रहा था। नाविकों ने तब बड़ा बहादुराना संघर्ष छेड़ा था और पुलिस व ठेकेदार की नाक में दम कर दिया था। पुलिस और ठेकेदार के गुंडे नाविकों पर हमले कर रहे थे। हंसराजजी के कारण बक्सर से हम छात्रों का एक समूह नाविकों के बीच रहता था। उन्हीं के बीच खाना, रहना और बक्सर शहर में नाटक करके व गीत गाकर उनके लिए समर्थन जुटाना। एक बार शाम के समय गंगा नदी के किनारे हमलोग अलाव के इर्द-गिर्द बैठे हुए थे। किसी गंभीर विषय पर बहस चल रही थी। हंसराजजी की फिक्र यह थी कि आग नहीं बुझे वरना इन लड़कों को ठंड लगेगी। वे लकड़ी ला-लाकर आग में डाल रहे थे । लकड़ियां नदी के किनारे की थी इसलिए हल्की भींगी थी। इसके कारण वे धुंआ कर रही थी। धुंआ से थोड़ी परेशानी हो रही थी। मैं उन्हें बार-बार लकड़ियां डालने से मना कर रहा था। मेरे मना करने के बावजूद उनके द्वारा लकड़ियां डाले जाने पर पर मेरे भीतर का बौद्धिक अहंकार जागा और मैं उनपर बरस पड़ा। वे पहले तो चुपचाप सुनते रहे फिर बोले- इ लड़ाई केकर? हमार नू? फिर तू के? मुझे लगा किसी ने मुझे थप्पड़ मार दिया हो। मैंने तुरंत उनसे माफी मांगी। एक बार समकालीन जनमत में एक लेख लिखने के कारण सीआईडी के अधिकारी मेरे घर पहुंच गये। वो लगभग रेड ही थी। मेरे घर के लोग परेशान। मुझे घर पर खूब डांट पड़ी थी तब। मैं परेशान हाल जन ज्वार पत्रिका के कार्यालय में पहुंचा था और सबको यह बात बताई। हंसराजजी हंसे थे। बोले- पहिलका बेर अइसही लागेला नन्हक। फेर आदत पड़ जाला। फिर कुछ दिनों के बाद मैं पटना आ गया। यहां पढ़ाई खत्म हुई और अखबार में काम करने लगा। कुछ दिनों के बाद जब बक्सर गया तो एक धरना पर उनसे मुलाकात हुई। उसी तरह नौजवानों के साथ। उन्होंने कहा- नौकरी करताड़ हो, लइकन के कुछ खियाव। और फिर बड़े अधिकार से मेरी जेब में हाथ डालकर पैसे निकाल लिये।
इधर दो साल पहले लम्बे समय के बाद उनसे मुलाकात हुई। वे घबराये थे और उनके साथ कामेश्वर भाई भी थे। हंसराजजी ने कहा था कि कुछ लोगों ने उनके लड़के को उठा लिया है और शायद उसकी हत्या कर डाली है लेकिन बक्सर की पुलिस कुछ नहीं कर रही है। कामेश्वर भाई के साथ वे मानवाधिकार आयोग के कार्यालय भी गये थे। वे चाहते थे कि इसकी खबर छपे और पुलिस कुछ कार्रवाई करे। फिर रुंआसे स्वर में कहा था- जब संगठन कमजोर होखेला त दुश्मन बरियार हो जाला। संगठन के कमजोर ना होखे के चाही।
कम्युनिस्ट पार्टियों की आपसी फूट से वे अक्सर परेशान रहते थे। उनक मानना था कि तीनों कम्युनिस्ट पार्टियां अगर जनसंघर्षों के स्तर पर भी एकजुट हो जाएं तो हालात काफी बदल सकते हैं। कम्युनिस्ट पार्टी चाहे कोई भी हो अगर उसका कोई कार्यकर्ता मुश्किल में पड़ता तो वे परेशान हो जाते थे। उनसे जुड़ी अनगिनत यादें हैं- उनकी खुशी की, उनके गुस्से की और उनके प्यार की। बराबर संगठन को मजबूत करने का सपना देखने वाले साथी हंसराज तो अब बस यादों में ही आयेंगे। लेकिन संगठन को मजबूत बनाने का उनका सपना जीवित है। न केवल बक्सर और बिहार बल्कि पूरे देश में।