शनिवार, 3 मार्च 2012

शहादत दिवस (23 मार्च) की याद में ख़ास

 
भगत सिंह फांसी की काल कोठरी से

-कमलेश
( ये एकल अभिनय मैंने उस समय किया था जब मैं इंटर का छात्र था. एक बंगाली नाटक देखने के बाद मैंने इसे खुद लिखा था. मैंने इसकी लगभग 50 प्रस्तुतियां की. 23 मार्च शहादत दिवस के मौके पर मैं इस नाटक को आपसे साझा कर रहा हूँ.) 

(एक खाट मंच के बीचों-बीच पड़ी है। एक किनारे एक छोटा सा स्टूल जिस पर पानी का गिलास और एक मोड़ा हुआ कागज पड़ा है। खाट पर एक नौजवान बैठा है। दोनों हाथों की हथेलियों से चेहरा छिपाए हुए है। नौजवान भगत सिंह है जिसे फांसी की सजा दी जा चुकी है। दूर कहीं से दीवार घड़ी के एक बजाने वाले घंटे की आवाज आती है और नौजवान उठकर टहलने लगता है. बेचैन करने वाले भाव। कभी-कभी मानो भावशून्य होकर आकाश में देखने लगता है।)
भगत सिंह: उफ....रात के एक बज गये हैं और मुझे नींद क्यों नहीं आ रही है? सोने की कोशिश करता हूं तो मन तुरत कहीं और भागने लगता है। कभी गांव के खेतों में दौड़ने लगता है तो कभी लाहौर की गलियों में। कभी मन झूम-झूम कर वैशाखी गाने लगता है तो कभी इतना उदास हो जाता है जैसे कोई अजीज बिछड़ने वाला हो। कभी-कभी मन एकदम डर जाता है। क्या मौत के पहले की रातों में ऐसा ही होता है?
(फिर अचानक खाट पर बैठते हुए)
 मैं नहीं जानता कि अंग्रेज कब मुझे मौत की सजा दे देंगे? मौत तो कभी भी आ सकती है। तो फिर गालिब ने ऐसा क्यों कहा है कि मौत का एक दिन मुअय्यन है नींद क्यों रात भर नहीं आती। और फिर मौत मेरे लिए कोई अनोखी या भयावह चीज तो नहीं। (फिर खाट से खड़े होते हुए) यह ठीक है कि मेरे लिए मौत का फैसला अंग्रेजों ने किया है लेकिन अपने लिए यह रास्ता तो मैंने ही चुना था। और इस रास्ते पर चलने की शुरूआत तो उसी दिन हो गई थी जा मैंने बंदूकों की खेती करने का फैसला किया था।
(खाट से उठकर स्टूल की ओर जाता है और उस पर पड़े कागज को उठाता है)
अरे, ये चिठ्ठी यहां किसने रख दी है। ये तो मां की चिठ्ठी है। ये चिठ्ठी उसने कब लिखी होगी? शायद अंग्रेजों ने रोक कर रखी होगी। वे डर रहे होंगे कि कहीं मां ने अपनी चिठ्ठी में बम तो नहीं रख दिया। मां मेरी प्यारी मां। तब कितनी उम्र रही होगी मेरी? मुझे ठीक-ठीक तो याद नहीं लेकिन मां तू तो अब भी उस बात को याद करके कितना हंसती है। याद है न? याद है जालियांवाला बाग़? 13 अप्रैल 1917। जेनरल ओ डायर ने जा एक झटके में पंजाब के सैकड़ों सपूतों को मौत की नींद सुला दी थी। क्या कसूर था उनका? यही न कि वे अपने मसाएल को लेकर इस नतीजे पर पहुंचे थे कि आ आजादी के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं।
मसला चाहे रोटी का हो या इज्जत का? यह गुलामी से शुरू होता है और आजादी पर खत्म होता है। लेकिन अंग्रेजों को यह मंजूर नहीं था। लिहाजा जालियांवाला बाग़ में अंग्रेजों की गोलियां चली लेकिन गोलियों की आवाज आजादी की चाहत को मिटा नहीं सकी। सैकड़ो लोग मारे गये। बाग का कुआ लाशों से पट गया। लेकिन आजादी के नारे बंद नहीं हुए। उफ क्या दौर था। हर तरफ शोक का माहौल था लेकिन लोगों ने शोक को अपनी ताकत में बदल दिया था। मैं आठ साल का था और मैं भी गया था उस जमीन की मिट्टी को माथे से लगाने।  तभी मैंने सोचा था कि बनाउंगा अपनी फौज और अंग्रेजों से मुक्त कराउंगा अपनी प्राणों से प्यारी भारतभूमि को। फौज के लिए बंदूक तो चाहिए थी और तभी मैंने बेबे से कहा था कि मैं बंदूकों की खेती करूंगा और बेबे हंस पड़ी थी। वही बंदूक तो मैंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ उठाई थी। तब से एक आग मन में लिए घूम रहा हूं। कब बनेगी भारत की अपनी फौज और कब होगी अंग्रेजों से फैसलाकून लड़ाई। 


(कागज फिर से खाट पर रखता है और एक बार सोने का उपक्रम लेकिन फिर तुरत उठकर बैठ जाता है)
तो अब फिर नींद क्यों नहीं आ रही? नींद तो उस रात भी नहीं आई थी जा हमने सांडर्स का वध करने का फैसला किया था। सांडर्स के वध के बाद भी कई दिनों तक नींद नहीं आई थी। ऐसा लगा था कि अपनी फौज बनाकर भारत की मुक्ति का रास्ता सच होने के कगार पर है। लेकिन हम मुठ्ठी भर लोग थे और सामने था ब्रिटिश साम्राज्य जिसके राज में सूरज कभी अस्त नहीं होता था। हमारे इरादे मजबूत थे लेकिन हमारे पास साधन नहीं थे। हम चाहते थे कि हम लोगों को अपनी बातें बताएं ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग हमारे साथ आये और पूरे देश में आजादी के लिए लड़ने वालों का ज्वार आ जाए। लेकिन इसके लिए जरूरी था कि हम लोगों के बीच  जाएं और अपनी बात बताएं। और तब हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक सेना ने तय किया था कि हम असेम्बली में बम फेकेंगे क्योंकि बहरों को सुनाने के लिए बम के धमाके की जरूरत होती है। लेकिन तब हमने तय किया था कि बम ऐसा हो जिससे किसी को नुकसान नहीं पहुंचे और बम फेंकने वाला भागे नहीं बल्कि वहीं अपनी गिरफ्तारी दे दे। गिरफ्तारी इसलिए ताकि इस देश के आम लोगों तक हम अपनी बात पहुंचा सकें। कितना भाग्यशाली था कि सेना ने इस काम के लिए मेरा चुनाव किया था और मेरा साथ देने के लिए थे बटुकेश्वर दत्त। हमलोगों ने बम फेंका और गिरफ्तारी दी। फिर हुआ मुकदमे का लंबा नाटक। और अब अदालत ने मेरे साथ-साथ सुखदेव और राजगुरु को फांसी की सजा सुनाई है।
(मंच के चारो ओर टहलते हुए)
हां, स्वीकार करता हूं मैं कि मैंने छेड़ा है ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ युद्ध। किया है मैंने एलान कि स्वतंत्रता पूरी मानव जाति का जन्मसिद्ध अधिकार है और यह हम भारतवासियों को मिलना ही चाहिए। मुझे अपनी फांसी पर कोई एतराज नहीं. बल्कि उन्हें तो मुझे गोली से उड़ा देना चाहिए था। लेकिन उनमें इतनी हिम्मत भी नहीं है। उन्हें तो ऐसा लगता है कि मुझे जेल में बंद करके वे मेरे विचारों के  पांवो में भी जंजीरें डाल रहे हैं। लेकिन उन्हें नहीं पता कि विचारों को कभी जंजीरें नहीं पहनाई जा सकती हैं। जार मिट गये, बारबन मिट गये लेकिन क्रांतिकारी आज भी अपना सीना तानकर चलते हैं। अगर मिलता मुझे इस देश के तीस करोड़ लोगों का साथ तो जेल तोड़कर आ जाता बाहर, बनाता अपनी फौज और मुक्त करता अपनी प्यारी भारत भूमि को। फिर हम सब लोग मिलकर बनाते एक ऐसा देश जहां न तो कोई बड़ा होता और न कोई छोटा। एक ऐसा देश जहां एक भंगी का बेटा भी उसी तरह सीना तानकर चले जैसे राष्ट्रपति का बेटा चलता है। एक ऐसा देश जहां सच में जनता की हुकूमत होती।
(फिर धीरे-धीरे जैसे मंच से ओझल होता है)
अलविदा मेरे प्यारे भारत देश। अलविदा मेरे देश के तीस करोड़ लोगों विदा। लेकिन याद रखना- जाना होगा उन्हें। भगत सिंह और इस देश के हजारों नौजवानों की लड़ाई बेकार नहीं जाएगी। और जब इस देश की हुकूमत तुम्हारे हाथों में होगी तो तुम्हें तय करना होगा कि तुम कैसा देशा बनाना चाहते हो। भूलना मत दोस्तों लड़ाई और शहादत की जरूरत हर दौर में पड़ती है। अलविदा.....खुश रहो अहले चमन हम तो सफर करते हैं।