मंगलवार, 6 दिसंबर 2011

कुछ समझा रहा बेगुसराय



कमलेश
इस बार काफी दिनों के बाद बेगुसराय जाने का मौका मिला. भोजपुर के बाद बेगुसराय ही वह जिला है जहाँ जाने के विचार मात्र से मन थोड़ा रोमांचित हो जाता है. एक ने वामपंथी दलों को बिहार की  संसदीय राजनीति में स्थापित किया तो दूसरे ने बिहार में वामपंथी आन्दोलन की दिशा बदल दी.


बेगुसराय माने एक जमाने का बिहार का लेनिनग्राद. बिहार का मास्को. कहा यह भी जाता है कि यही वह जिला है जहाँ भूमिपति भी सीपीआइ का सदस्य होता था तो उसके खेत पर काम करने वाला भी लाल झंडा ढ़ोता था. बिहार में पहली बार इसी जिले से कम्युनिस्ट पार्टी ने अपना विधायक दिया और तब कहा गया था- रेड स्टार ओवर बिहार. फिर तो इस जिले में कम्युनिस्ट पार्टी की  ऐसी दुदंभी बजी कि दूसरी  किसी पार्टी के लिए इस जिले में घुसना भी मुश्किल हो गया. अकेले सीपीआइ ही नहीं सीपीएम और सीपीआइ एमएल ने भी अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराइ. माओवादियों का भी जिले में मजबूत संगठन रहा  है. एक समय बरौनी रीफाइनरी के  मजदूरों के बीच इतनी मजबूत पकड़ बनी थी की अन्य संगठनों को हैरत होती थी. इस यूनियन की चर्चा देश भर के ट्रेड यूनियन आन्दोलन में होती थी. बरौनी फर्टीलाइजर में भी मजदूरों के बीच कम्युनिस्ट पार्टी का अच्छा काम था. बिहार के कम्युनिस्ट नेता कई बार कहते भी थे कि हमारे पास और कुछ हो या न हो बेगुसराय तो है.हाल-हाल तक तो यह हाल था कि इस जिले के नौजवान या तो जन गीत सुनते हुए बड़े होते थे या किसान आंदोलनों के नारे सुनते हुए. अपराध की राजधानी माने जाने वाले इस जिले में कम्युनिस्ट नेताओं ने गांव-गांव में पुस्तकालय खोले थे. यहाँ के एक गांव गोदर गांवा के विप्लवी पुस्तकालय को देख कर प्रभाष जोशीजी ने अपने अख़बार जनसत्ता में लिखा था- गोदरगांवा वाले आ रहे हैं. लगभग दस साल पहले जब मैं पहली बार बेगुसराय नाटक करने गया था तो मुझे लगा था कि यहाँ के गांव में तालाब  हो या न हो पुस्तकालय जरूर है. गांव की बात तो छोड़ दीजिये बेगुसराय शहर में भी शाम होते ही जगह-जगह जनता से जुड़े नाटकों के रिहर्सल होते थे और ढोलक की थाप पर जनगीत सुनाई पड़ने लगते थे. सचमुच एक निराले लोक में आने का अहसास होता था. लेकिन इस बार लगा कि सब कुछ बदल गया है. जनगीतों की जगह डीजे ने ले ली है और पुस्तकालय भी धीरे धीरे ख़त्म हो रहे हैं. कम्युनिस्ट पार्टियों के पास नए कार्यकर्ताओं का घोर अकाल है. पुराने लोग भी अब उतने सक्रिय नहीं रह गए हैं. वहां भी जातीय आधार पर गोलबंदी शुरू हो गयी है. इससे इमानदार कार्यकर्ताओं में निराशा का माहौल है.कुल मिलाकर कम्युनिस्ट पार्टी का यह गढ़ पूरी तरह ढह गया है. हालत यह हो गयी है कि इसके सारे दुर्ग भाजपा-जद यू के कब्जे में चले गए हैं. पिछले ६२ वर्षों में पहली बार बरौनी विधानसभा क्षेत्र पर भाजपा का कब्ज़ा हुआ है तो मटिहानी विधानसभा क्षेत्र जिसमे गोदर गांवा पड़ता है, शराब का धंधा करने वाले एक दबंग ने सीपीआइ से यह सीट पिछले चुनाव में ही छीन  ली थी. इस बार भी यह क्षेत्र सीपीआइ के कब्जे में नहीं आ सका. लेकिन सबसे हैरत वाली बात यह है कि बरौनी रीफाइनरी के मजदूर यूनियन भी इस बार सीपीआइ के हाथ से निकल गया. इस मजदूर यूनियन के इतिहास में यह पहला मौका था जब इस पर से सीपीआइ का वर्चस्व टूटा और उसे हराया भाजपा से सम्बद्ध मजदूर विकास परिषद् ने. वैसे परिषद् के अधिकतर नेता पहले सीपीआइ वाली यूनियन में ही थे.



कहते हैं कम्युनिस्ट पार्टी का सबसे बड़ा हथियार आत्मालोचना का होता है. लेकिन दुर्भाग्य से बेगुसराय के पार्टी नेता शायद इस हथियार का उपयोग करने के लिए तैयार नहीं हैं. खुद पार्टी के ही कई कार्यकर्ताओं ने बताया कि बरौनी रीफाइनरी के मजदूर यूनियन का कम्युनिस्ट नेतृत्व कहीं से कम्युनिस्ट नहीं रह गया था. इस नेतृत्व  पर सवाल उठने लगे थे. भ्रष्टाचार  से लेकर यौन उत्पीडन तक के आरोप लगे लेकिन पार्टी ने इसे कभी गंभीरता से नहीं लिया. नतीजा यह हुआ कि यूनियन के कई सक्रिय कार्यकर्ताओं ने किनारा कर लिया और अधिकतर भाजपा के मजदूर संगठन के साथ चले गए. एक पत्रकार किस्सा सुना रहे थे कि जब भाजपाई संगठन ने इस यूनियन पर कब्ज़ा जमाया तो उसने एक प्रेस कांफ्रेंस की थी. कई पत्रकारों ने जब उस प्रेस कांफ्रेंस में बैठे नेताओं का चेहरा देखा तो उन्हें लगा कि कहीं वे गलती से पिछली यूनियन के ही ऑफिस में तो नहीं आ गए. हालाँकि बाद में वे समझ गए. वे तो समझ गए पर पता नहीं इस बात को कम्युनिस्ट पार्टियाँ कब समझेंगी. क्या बेगुसराय कुछ समझने के लिए पर्याप्त नहीं है.