शनिवार, 10 नवंबर 2012

कई संभावनाओं के द्वार खोल गई माले की रैली

कमलेश
भाकपा माले की रैली 9 नवम्बर को संपन्न हुई। न कोई ताम-झाम और न पटना जैसे शहर में कोई गेट न होर्डिंग्स। न शहर में पोस्टर सटे न परचे बंटे। यह पहला मौका था जब माले की कोई रैली हुई हो और शहर की दीवारें वाल राइटिंग से खाली  रह गई। न तो शहर में कहीं माले का लाल झंडों से सजा-धजा प्रचार वाहन दिखा और ना ही राजधानी में कहीं नुक्कड़ सभा देखने को मिली। न मशाल जुलूस निकला और ना प्रचार जुलूस के जत्थे दिखे। लेकिन फिर भी रैली में लोग उमड़े और जमकर उमड़े। पूरा गांधी मैदान लाल हो गया। लोग और लोगों के हाथ में लाल झंडा। ठीक चार दिन पहले धन की रैली करने वाले जन की इस रैली को देखकर मुंह छिपाने लगे। देखने वाले शहर के लोगों ने कहा- काफी दिनों के बाद विपक्ष में रहने वाले किसी दल ने इतनी बड़ी और शानदार रैली की।
भाकपा माले के महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य ने खुद कहा- भाकपा माले ने खुद अपना ही रिकार्ड तोड़ा है। उनके अनुसार यह भाकपा माले की अब तक की सबसे बड़ी रैली थी। श्री भट्टाचार्य सही थे। पिछले दिनों सीपीआई के कांग्रेस के समय भी रैली हुई थी। वह भी रैली बड़ी थी लेकिन माले की इस रैली ने लोगों को जुटाने के मामले सीपीआई की उस रैली को पीछे छोड़ दिया। कहने की जरूरत नहीं कि इस रैली में पहुंचे लोग अपने संसाधनों से आये थे। पूरी रात उन्होंने गांधी मैदान में खाली आसमान के नीचे ठंड में गुजारी और अहले सुबह से रैली में जुट गये। खाने का सामान भी लोग खुद अपना लेकर आये थे। रात भर गांधी मैदान के कई कोनों में गीत गूंजा- जनता के आवे पलटनिया, हिलेले झकझोर दुनिया।

बिहार के राजनीतिक गलियारों में माना जा रहा है कि भाकपा माले की यह रैली राजनीतिक रूप से थोड़ी अलग रही। अलग इस मामले में कि इसने राज्य में नई राजनीतिक संभावनाओं के द्वार खोले हैं। रैली के मंच पर एक नये गठबंधन का भ्रूण रूप दिखाई पड़ा। अपने भाषण के दौरान माले महासचिव ने राज्य में तीसरे मोर्चे के गठन की ओर बढ़ने का संकेत देकर इस संभावना को और मजबूत करने की कोशिश की। मंच पर न केवल विभिन्न वामपंथी दलों के नेता मौजूद थे बल्कि समाजवादी धड़े के लोग भी शामिल थे। मंच पर समाजवादियों को देखकर कई लोग चौंके। चौंकना भी स्वाभाविक था। पिछले कुछ समय से इन दोनों धाराओं के बीच की खाई थोड़ी गहरी दिख रही थी। भाकपा, माकपा और माले के नेता तो सीपीआई की कांग्रेस में भी एक मंच पर आए और उन्होंने वामपंथी दलों की एकता को समय की जरूरत बताया था। इस रैली में भी यही हुआ। माकपा के राज्य सचिव विजयकांत ठाकुर ने तो यहां तक कहा कि अनुभवों से यह साबित हुआ है कि बुर्जुआ दलों के साथ गठबंधन से वे दल तो मजबूत हो जाते हैं लेकिन वामपंथी दलों के लिए इसका अनुभव अच्छा नहीं होता है। सीपीआई के राज्य सचिव राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने भी कहा कि नीचे के स्तर पर वामपंथी दलों की एकता पर बात होने लगी है। लिहाजा इन बातों का शायद उतना महत्व न भी हो क्योंकि अमूमन चुनाव के पहले वामपंथी दलों के नेता ऐसी बातें करते रहते हैं लेकिन चुनाव के दौरान उनके लिए दूसरे एजेंडे महत्वपूर्ण हो जाते हैं। इस रैली में खास बात उन समाजवादियों का जुटना रहा जो अभी न तो लालू प्रसाद के खेमे में हैं और ना ही नीतीश कुमार या शरद यादव के खेमे में। लेकिन वे किसी न किसी स्तर पर लड़ाई लड़ रहे हैं। मसलन मंच से भाषण करने वालों में पूर्व मंत्री और समाजवादी नेता हिंदकेशरी यादव भी मौजूद थे। अभी श्री यादव मुजफ्फरपुर और इसके आसपास के इलाकों में शराब विरोधी आन्दोलन चला रहे हैं और इनके आन्दोलन से घबराये शराब माफियाओं ने इन्हें पिछले दिनों बुरी तरह से पीटा था।
इस मंच पर बिहार के प्रमुख समाजवादी नेता और पूर्व केन्द्रीय मंत्री देवेन्द्र प्रसाद यादव भी मौजूद थे। श्री यादव अभी नीतीश और लालू दोनों से दूर हैं। हालांकि देवेन्द्र प्रसाद यादव ने कई बार अपने ही दल के भीतर जनतांत्रिक स्वरूप बहाल करने की लड़ाई लड़ी है और इसके लिए वे चर्चित भी रहे हैं। भाकपा माले की रैली में देवेन्द्र प्रसाद यादव ने एक मजेदार बात कही। उन्होंने कहा कि भाकपा माले जिस तीसरे मोर्चे की बात कर रहा है अगर वह बनता है तो बड़े भाई (लालू प्रसाद) और छोटे भाई (नीतीश कुमार) फिर एक हो जाएंगे। माले के मंच पर समाजवादी नेता रामदेव सिंह यादव को भी देखना लोगों के लिए सुखद रहा।
मतलब यह कि आने वाले दिनों में हाशिये पर पड़े समाजवादियों और वामपंथियों के बीच अगर एकता होती है तो यह बिहार की राजनीति में एक नई बात होगी। लम्बे समय के बाद बिहार की राजनीति में ऐसी कोई संभावना आई है। एक बार समता पार्टी और भाकपा माले मिलकर चुनाव लड़े थे लेकिन वह संभावना जितनी जल्दी सामने आई उससे भी ज्यादा तेजी से लुप्त हो गई थी। चुनाव के नतीजे भी इतने खराब थे कि दुबारा उसके बारे में सोचा नहीं जा सकता था। सीपीआई और सीपीएम लम्बे समय तक राजद के साथ मोर्चे में रहे। माकपा तो हाल-हाल तक रही। लेकिन इन तमाम गठबंधनों में समाजवादी ताकतें निर्णायक भूमिका में रहती थीं और वामपंथियों को उनका अनुसरण करना पड़ता था। इस बार अगर कोई मोर्चा दोनों ताकतों के बीच बनता है तो जाहिर है कि वामपंथी निर्णायक भूमिका में रहेंगे और ये एक नई बात होगी। हाशिये पर पड़े ये समाजवादी अपने स्तर से लड़-भिड़ तो रहे हैं लेकिन किसी मजबूत केन्द्र से जुड़ाव नहीं होने के कारण उनकी लड़ाई स्थानीय स्तर पर ही सीमित रह जाती है। अगर वामपंथियों के साथ उनकी लड़ाई जुड़ती है तो इसके सार्थक नतीजे आ सकते है।