रविवार, 19 अगस्त 2012

कोसी: जारी है लड़ाई

कमलेश

अगस्त आधा बीत चुका है और सितम्बर इतना करीब कि उसके कदमों की आहट सुनाई दे रही है। बादल के छंटने के बाद होने वाली धूप जानलेवा हो गई है। उमस इतनी कि पसीने से कपड़े भींग रहे हैं। ठीक ऐसे ही मौसम में कारगिल चौक पर जन सुनवाई शुरू हुई थी। इसमें कोसी के बाढपीड़ितों के लिए लड़ने वाले पीड़ितों के पुनर्वास और पुनर्निर्माण कार्यक्रमों की जमीनी हकीकत बता रहे थे। अगले दिन ईद का त्योहार होने के कारण जनसुनवाई में जुटे लोगों की तादाद तो कम थी लेकिन मुद्दे बहुत बड़े थे। कोसी विकास संघर्ष समिति और कोसी नवनिर्माण मंच की ओर से आयोजित इस जनसुनवाई में महेन्द्र यादव जब गांवों के रेगिस्तान में बदल जाने की कथा सुना रहे थे तो आसपास बड़ी संख्या में राजधानी के लोगों की भीड़ जमा हो गई। लोग यह जानकर चकित थे कि बिहार में एक ऐसा भी गांव है जहां हवा चलती है तो आप बाहर नहीं निकल सकते क्योंकि यदि आपने ऐसा दुस्साहस किया तो आपकी आंखों में रेत भर जाएगी। क्या इसका मतलब यह है कि बिहार में मरुस्थल भी है। वे बता रहे थे कि इन इलाकों में आप रात में बाइक से नहीं चल सकते क्योंकि बालू में फंसकर बाइक कहां आपको पटक देगी इसका पता भी आपको नहीं चल पाएगा। उन्होंने जनकारी दी कि कोसी क्षेत्र के गांवों के खेतों में बालू भर चुका है और  वहां अब खेती पूरी तरह मुश्किल हो चुकी है। विपन्नता का आलम यह है कि पेट भरने के लिए लोग अपने छोटे-छोटे बच्चों को काम करने के लिए बाहर भेज रहे हैं और इसके कारण इस इलाके की लड़कियां बड़ी संख्या में ट्रैफिकिंग की शिकार हो रही हैं। इस जनसुनवाई के आयोजक दोनों संगठन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय से संबद्ध हैं।
18 अगस्त को कोसी त्रासदी के चार वर्ष पूरे हो गए। इसी मौके को लेकर इस जनसुनवाई का आयोजन किया गया था। 2008 में इसी दिन कोसी की बाढ़ तबाही लेकर आई थी। देश में पहली बार मानवकृत बाढ़ की इस त्रासदी में कोसी अंचल के 30 लाख लोग पीड़ित हुए थे। राज्य सरकार ने कोसी क्षेत्र में राहत व पुनर्वास कार्यक्रम शुरू करते हुए कहा था कि कोसी अंचल को पहले से बेहतर स्थिति में बसाया जाएगा। पर चार वर्ष बीतने के बावजूद कोसी क्षेत्र के हजारों एकड़ उपजाऊ खेतों में बालू भरा पड़ा है। लाखों ध्वस्त और क्षतिग्रस्त मकान पुनर्निर्माण के इंतजार में हैं। पुनर्वास की लचर नीति के कारण नगरवासी और व्यापारी किसी भी प्रकार की क्षतिपूर्ति व पुनर्वास के कार्यक्रमों से पूरी तरह वंचित हैं। पुनर्वास की तमाम योजनाओं में जटिल प्रक्रियाओं, सरकारी उदासीनता और सुस्ती से भ्रष्टाचार का रास्ता खुल गया है।
सामाजिक कार्यकर्ता रणजीव कुमार ने बताया कि खुद सरकार के अपने आंकड़ों के अनुसार कोसी क्षेत्र में आई बाढ़ से कुल 2 लाख 36 हजार 632 घर ध्वस्त हुए थे। राज्य सरकार ने विश्व बैंक से कर्ज लेकर 31 दिसम्बर 2011 तक एक लाख आपदा सहाय्य आवास गृह के निर्माण की घोषणा की थी। पर इस योजना का क्या हुआ, यह किसी को पता नहीं है। महेन्द्र यादव ने जानकारी दी कि गरीब लोग आज भी अपने सिर पर पॉलीथिन की छत बनाकर रह रहे हैं। हर बार तेज हवा और बरसात में यह छत ध्वस्त हो जाती है। उन्होंने बतया कि खेतों की हालत के बरे में जानकारी लेने के लिए सुपौल जिले के बसंतपुर अंचल के अंचलाधिकारी से सूचना के अधिकार के तहत जानकारी मांगी गई थी। इसपर उन्होंने जवाब दिया कि इस अंचल में 1429.70 एकड़ खेतों में बालू भरा है। इस एक अंचल के बालू भराव से अनुमान लगया जा सकता है कि सुपौल, मधेपुरा और सहरसा जिलों के कितने खेतों में बालू भरा है। मतलब साफ है। बाढ़ भले चार वर्ष पहले आई हो लेकिन उसका कहर आज भी लोगों के लिए जानलेवा ही है। यहां यह बता देना जरूरी है कि कोसी की बाढ़ को केन्द्र सरकार ने राष्ट्रीय आपदा घोषित किया था।
                कोसी क्षेत्र के लोगों की मांगों को लेकर  चल  रहे आन्दोलन से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता मणिलालजी का कहना था कि इस पूरे इलाके के लोगों की कठिनाइयां लगातार बढ़ी हैं। आज भी अनेक गांवों के संपर्क रोड और पुल-पुलिया टूटे हुए हैं। हल्की बारिश से ही लोगों की मुश्किलें बढ़ जाती हैं। बाढ़ में जिनके लोग मर गये थे उनके लिए मुआवजे की तो घोषणा की गई लेकिन उसे ले लेना आज भी कठिन काम है। जिनके पशु मरे, वे तो मुआवजे की बात भूल ही गए। स्कूल और अस्पतालों की हालत तो राम भरोसे ही है। मनरेगा और स्वावलम्बन की अन्य योजनाओं पर मठाधीश काबिज हैं और आम लोगों के हाथ कुछ भी नहीं आ रहा है। कोसी त्रासदी के बाद राज्य सरकार ने 9 दिसम्बर 2008 को कोसी बांध कटान न्यायिक जांच आयोग का गठन किया था। इस आयोग को एक साल के अंदर अपनी रिपोर्ट दे देनी थी। लेकिन इस आयोग का गठन किये हुए चार वर्ष पूरे हो गए और इसपर एक करोड़ से ज्यादा रुपये खर्च हो गए लेकिन आज तक आयोग ने प्रभावित क्षेत्रों का दौरा करके जनसुनवाई भी पूरी नहीं की है। रिपोर्ट की बात तो अभी कोसों दूर है। आयोग की शर्तें और एवं जांच के बिन्दुओं को इस तरह निर्धारित किया गया है कि उसमें से राज्य सरकार साफ बचकर निकल जाए। कोसी विकास संघर्ष समिति और कोसी नवनिर्मण मंच के नेताओं का आरोप था कि कुसहा में तटबंध टूटने के बाद आज तक एक भी पदाधिकारी, इंजीनियर और ठेकेदार पर कार्रवाई नहीं हुई। तब के सिंचाई मंत्री आज भी इस सरकार में खासमखास बने हुए हैं। कोसी के लोग बस इतना मांग रहे हैं कि उनका जीवन एक बार फिर पटरी पर लौट आए। इस जनसुनवाई में जो 23 सूत्री मांगें रखी गई उनमें कुछ भी ऐसा नहीं है जो उन्हें नहीं दिया जा सकता है. इन मांगों को लेकर राज्य सरकार न तो पहले गंभीर रही है और ना ही अब ऐसे लक्षण दिखाई पड़ रहे हैं जिससे लगे कि सरकार के एजेंडे में कोसी के बाढ़पीड़ित भी हैं।
समय बीतने के साथ कोसी क्षेत्र से बाहर के लोग कोसी की भयानक बाढ़ को भूलने लगे हैं। जनदबाव नहीं होने से यह मुद्दा गौण पड़ गया है और सरकार भी इससे जल्दी ही हाथ झाड़ लेना चाहती है। इस स्थिति में ऐसी जनसुनवाइयों का खास महत्व है। इसके कारण कोसी की बाढ़ का मसला एक बार फिर राजधानी में उठा और इससे राजधानी के बुद्धिजीवियों को याद आया कि इस बाढ़ ने कैसी तबाही मचाई थी। इस जनसुनवाई ने लोगों को बताने की कोशिश की है बाढ़ ने तो लोगों को सबकुछ छीना ही अब सरकार भी उन्हें मारने पर तुली हुई है। वैसे कोसी के क्षेत्र के लोगों ने अपनी लड़ाई नहीं छोड़ी है और वहां यह मुद्दा लगातार चल रहा है। इस साल 14 और 15 अप्रैल को सुपौल के जदिया में कोसी पुनर्वास की जमीनी हकीकत और जन हस्तक्षेप विषय पर दो दिनों की कार्यशाला आयोजित की गई थी जिसमें इस मसले को लेकर लड़ने वाले लोग और ग्रामीण जमा हुए थे। पिछले साल 7 से 10 दिसम्बर तक सुपौल के वीरपुर से मधेपुरा के बिहारीगंज तक कोसी जनसंवाद यात्रा का आयोजन किया गया। इसमें राजेन्द्र सिंह ने भी हिस्सा लिया था। इसके बाद वीरपुर में कोसी जनपंचायत लगाई गई जिसमें मेधा पाटेकर ने भी भाग लिया था। इस बार भी राजधानी के रंगर्किमयों और सामाजिक सरोकार रखने वाले बुद्धिजीवियों ने जनसुनवाई में भाग लिया। इससे उम्मीद की एक रोशनी दिखाई पड़ी है।

शुक्रवार, 3 अगस्त 2012

विकास के दौर में महिलाओं की जगह

विकास के दौर में महिलाओं की जगह

कमलेश


सीएसडीएस की ओर से प्रकाशित पुस्तक भारत का भूमंडलीकरण में अभय कुमार दुबे का एक लेख है- पितृसत्ता के रूप। इस लेख में एक जगह कहा गया है कि जब पूरी दुनिया में भूमंडलीकरण का दौर शुरू हुआ था तो नारीवादी चिंतक सिंथिया एनलो ने पूछा था- क्या तुम्हारी इस व्यवस्था में महिलाओं के लिए कोई जगह है? इस एक सवाल ने भूमंडलीकरण के बाद बदली हुई दुनिया में औरतों की जगह बता दी थी।  मुझे लगता है कि वक्त आ गया है कि बिहार की महिलाओं को भी अब  यहां की सरकार से यही सवाल पूछना चाहिए- क्या तुम्हारे इस विकास में महिलाओं के लिए कोई जगह है? क्या इस सूबे में कोई ऐसी जगह है जहां वे अपनी अस्मिता के साथ सुरक्षित रह सकें? इस राज्य में जो कुछ भी हो रहा है अगर उसे विकास कहते हैं तो उसकी सबसे बड़ी कीमत इस प्रदेश की महिलाएं चुका रही हैं।

अभय कुमार दुबे अपने उसी लेख में कहते हैं कि आज के दौर में यह बात लगभग सच साबित हो चुकी है कि इतिहास के किसी भी कालखंड में महिलाओं का उतना शोषण और दोहन नहीं हुआ है जितना इस दुनिया में अकेले भूमंडलीकरण के बाद हुआ है। मुझे लगता है कि यही बात बिहार के मामले में भी सच है। पिछले सात वर्षों में विकास के शोर के बीच महिलाओं की चीख जिस तरह दबती रही है उतना शायद किसी और कालखंड में नहीं हुआ।


महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाएं बेतहाशा बढ़ी हैं, उनके साथ मारपीट और यहां तक कि उनकी हत्या करने की घटनाओं पर कहीं कोई नियंत्रण नहीं है। पॉश इलाकों में चकलाघर खुले हैं। बड़े-बड़े अपार्टमेंटों में ऐसे फ्लैट पकड़े गए हैं जहां धंधेबाज दूर-दराज की महिलाओं को लाकर वेश्यावृति कराते हैं। 
पटना में एक छात्रा के साथ हुआ गैंग रेप तो एक कड़ी की तरह है। इसके ठीक बाद नालंदा  की दो छात्राओं ने कहा कि उनके साथ कुछ लोगों ने सामूहिक बलात्कार किया है। पुलिस ने तफ्तीश के बाद बड़े ही शर्मनाक लहजे में कहा कि दोनों लड़कियां सेक्सुअली हैबिचुएटेड हैं। इसके साथ यह भाव भी छिपा हुआ था कि अगर लड़कियां ऐसी हैं तो उनके साथ कुछ भी जायज है। इस घटना के 48 घंटे भी नहीं बीते कि सीवान में एक डॉक्टर के पास एक नवविवाहिता अल्ट्रासाउंड कराने गई और डॉक्टर ने उसके साथ बलात्कार किया। पिछले साल अगस्त महीने में सारण जिले के मांझी थाने में एक छात्रा के साथ पुलिसकर्मियों ने सामूहिक बलात्कार किया। पिछले साल ही बगहा के एक थाने में एक महिला के साथ पुलिसकर्मियों ने सामूहिक बलात्कार किया। पिछले साल की शुरुआत में ही एक महिला ने एक भाजपा विधायक राजकिशोर की चाकू मारकर हत्या कर दी। उसका आरोप था कि विधायक ने उसकी इज्जत लूटी थी और और अब वह बराबर उसके साथ हमबिस्तर होने की मांग कर रहा था। महिला हत्या के बाद से ही जेल में है।

ये सारी घटनाएं ऐसे दौर में हो रही है जब बिहार में यह दावा किया जा रहा है कि यहां महिलाएं सशक्त हो रही है। बार-बार ऐसे चित्र दिखाये जा रहे हैं कि गांवों में लड़कियां साइकिल से स्कूल जा रही हैं, लड़कियां स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से बड़े-बड़े काम कर रही हैं, लड़कियां पुलिस में जा रही है और लड़कियां खेतों का काम संभाल रही हैं। इसके साथ ही और भी न जाने क्या-क्या?  राजधानी में बताया जाता है कि महिलाएं रात के 12 बजे परिवार के साथ बोरिंग रोड चौराहे पर आइसक्रीम खाने आती है। और ठीक ऐसे ही समय में यह बात भुला दी जाती है कि दिन के उजाले में राजवंशीनगर जैसे पॉश इलाके में दिन-दहाड़े कुछ लोग मिलकर एक लड़की की इज्जत लूट लेते हैं और नेहरूनगर में दिन के 11 बजे कुछ लोग घर में घुसकर महिला प्राचार्य की हत्या कर देते हैं। मतलब यह कि इस विकास के दौर का सच यह भी है कि बिहार की राजधानी पटना में महिलाओं पर हमले के लिए रात का इंतजार करने की कोई जरूरत नहीं। उनपर दिन में हमले कर सकते हो और वे अपने घर में भी हों तो भी उनपर हमले कर सकते हो। विकास के बड़े-बड़े चित्र और और बड़ी तेज आवाजें। इन आवाजों में अक्सर महिलाओं की चीख दब जाती है।

इसमें दो राय नहीं कि हाल के दिनों में लड़कियों में कुछ बनकर दिखाने का जो उछाह पैदा हुआ है वह इतिहास के किसी दूसरे कालखंड में दिखाई नहीं पड़ता है। आप उन्हें साइकिल न भी दें तो भी स्कूल जाने का जो आवेग उनके भीतर पैदा हुआ है वह मरेगा नहीं। हाल में हुई शिक्षक और बैंक में नियुक्ति की परीक्षाओं में महिलाओं की भागीदारी देखकर कई लोगों ने दांतों तले अंगुली दबाई थी। लेकिन साथ में ही यह भी सच है कि जितनी तेजी से महिलाएं आगे बढ़ने का प्रयास कर रही हैं उतनी ही तेजी से उनके खिलाफ हमले भी बढ़ रहे हैं। हमले भी हर तरह के लोग कर रहे हैं। इसके लिए हमलावर का अनपढ़ या अपराधी होना जरूरी नहीं। हमला हर वर्ग की तरफ से होता है। कभी हमलावर प्रलिस होती है तो कभी दबंग तो कभी पुरुष साथी। डॉक्टर और इंजीनियर जैसे पढ़े-लिखे लोग भी इस मामले में पीछे नहीं होते। अगर सामने लड़की हुई तो फिर सारी पढ़ाई-लिखाई गई गतालखाते मे। अगर अपनी साइकिल बनवाने आई एक छोटी बच्ची के साथ मिस्त्री दुष्कर्म करने की कोशिश करता है तो दूसरी तरफ एक डॉक्टर अपनी ही मरीज महिला की इज्जत से खेलता है। जहां महिलाओं की अस्मिता पर हमले का मामला आता है वहां सभी एक स्तर पर आ जाते हैं- डॉक्टर से लेकर साइकिल मिस्त्री तक।


मीडिया भी इस मामले में कहां पीछे रहती है? उसने बलात्कार पीड़िता को ही आरोपों के घेरे में ला दिया। राजधानी में हुए गैंग रेप के बाद मीडिया के एक हिस्से ने यह खबर उड़ाई कि बलात्कार की शिकार लड़की जब भी दुकान पर जाती थी तो चॉकलेट के बड़े-बड़े डब्बे खरीदती थी और वह हमेशा दुकानों में हजार या पांच सौ रुपये के ही नोट देती थी। जिस हिस्से ने यह खबर उड़ाई थी उसके इरादे साफ थे क्योंकि इतना बताने के साथ वह यह भी बता रहा था कि उस लड़की के घरवाले काफी गरीब हैं। मीडिया का यह हिस्सा यह खबर उड़ाकर कहना क्या चाहता था, यह साफ है।



 एक इलेक्ट्रॉनिक चैनल ने तो एक बलात्कारी को ही अपने यहां बुला लिया। वहां भी इरादा खुला हुआ था- बलात्कार को लाइव दिखा नहीं सकते तो बलात्कार की कहानी ही लाइव सुना दीजिए। जितनी देर उस बलात्कारी का इंटरव्यू चला उतनी देर तक एंकर का अंदाज उस बलात्कारी को महिमामंडित करने वाला था। दावा किया गया कि वह बलात्कारी चैनल में आत्मसमर्पण करने पहुंचा है। हद तो तब हो गई जब उसकी गिरफ्तारी के बाद एक पत्रकार ने पुलिस अधिकारी से सवाल किया कि चूंकि आरोपित ने आत्मसमर्पण किया है इसलिए उसके प्रति क्या नरमी का व्यवहार किया जाएगा?


लेकिन हालात बिगड़ रहे हैं तो सवाल भी खड़े हो रहे हैं। सवाल लोगों को झिंझोड़ भी रहे हैं। बिहार के महिला संगठन इस मसले को मजबूती से उठा रहे हैं और पुलिस को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं। उम्मीद है कि विकास के परदे के पीछे  का सच भी जल्दी ही लोग समझने लगेंगे।